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गुजरातमें चरखा

पीठमें उन्हें भले ही गरीबीसे रहना पड़े, भले ही उनकी निन्दा हो, किन्तु फिर भी हम यहाँ तो पद-पदपर स्वराज्यको नजदीक ला रहे हैं। यह मेरा विश्वास है और मैं अपने इस विश्वासको त्याग नहीं सकता।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३०-५-१९२६

५९९. गुजरातमें चरखा

भाई लक्ष्मीदासने गुजरातमें चरखेके प्रचारसे सम्बन्धित कुछ तथ्य इकट्ठे किये हैं। उन्हें पाठक इस अंकमें देखेंगे। उनसे हम देख सकते हैं कि अहमदाबाद और नडियाद आदि शहरोंमें भी कताई इने-गिने लोग ही करते हैं। यह क्षेत्र बहुत संकुचित है, हमें यह स्वीकार करना चाहिए। तो भी हम देख सकते हैं जो स्त्रियाँ चरखा चला रही हैं उनके लिए तो यह एक ही धन्धा है। इसमें जिन स्त्रियोंको किसी और धन्धेसे अधिक मजदूरी मिल सकती है, उनसे चरखा चलवानेका प्रयत्न नहीं किया जाता। चरखेका स्थान ही अनोखा है। जिसके पास और कोई भी नीतियुक्त धन्धा नहीं है उसके लिए ही चरखेकी कल्पना की गई है। परन्तु हिन्दुस्तान-जैसे विशाल और घनी आबादीवाले देशमें करोड़ोंकी उद्योग केवल चरखा ही दे सकता है और यदि अहमदाबाद और नडियाद आदि शहरोंमें पैसेके लिए चरखा चलानेवाले मिल जाते हैं तो गाँवोंमें उसकी उपयोगिता कितनी ज्यादा होगी, इसका हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। गरीबोंके घरोंमें यदि अन्नदाता चरखेका गुँजन नहीं हो रहा है तो उसका एकमात्र कारण परोपकारी, त्यागी और ज्ञानी कार्यकर्त्ताओंकी कमी ही है।

दूसरा ऐसा ही सबल कारण यह तो है ही कि गुजरातमें खादीकी खपत बहुत कम है। जब हममें सच्ची राष्ट्रीय चेतना आयेगी तब खादी गेहूँ और घीकी भाँति व्यापक हो जायेगी और इसकी माँग बढ़ जायेगी। अभी तो हमने गुजरातमें गरीबोंके घरोंमें प्रवेश ही नहीं किया है; उनमें प्रवेश करनेका अधिकार प्राप्त नहीं किया है, और हमारे मनमें प्रवेश करनेकी इच्छा भी जागृत नहीं हुई है। जब हममें सचमुच यह चेतना आ जायेगी तब एक नहीं अनेक नवयुवक गाँवोंमें जायेंगे और लोकसेवा करेंगे तथा उस सेवासे मिलनेवाली आजीविकापर जीवन व्यतीत करनेमें गौरव मानेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३०-५-१९२६