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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  कोई देखा-देखी तो नहीं करना है। हमें वह किसी नीति अथवा युक्तिके रूपमें भी नहीं करना है। जो लोग दृढ़ असहयोगी हैं वे अपने आत्म-विश्वासके बलपर ही लड़ रहे हैं। सम्भव है कि उन्हें और भी अधिक कठिन समयसे गुजरना पड़े। परन्तु यदि ऐसा हो तो जिस प्रकार खरे सोनेकी परीक्षा अग्निमें तपानेपर अधिकाधिक होती जाती है उसी प्रकार असहयोगियोंकी भी परीक्षा होगी। जो आखिरतक दृढ़ रहेंगे वे ही सच्चे असहयोगी गिने जायेंगे, ऐसे लोग चाहे थोड़े हों या बहुत, परन्तु स्वराज्य उन्हींके द्वारा प्राप्त किया जा सकेगा। सरदार शार्दूलसिंहने पंजाबमें व्याख्यान देते हुए अभी जो कहा है वह सच है। शेर और बकरोंमें सहयोग नहीं हो सकता। सहयोग अपने समानवर्गीसे किया जाये तो ही ठीक होता है। वर्तमान स्थितिमें सरकारसे लोगोंके किसी भी प्रकारके सम्बन्धको सहयोग कहना उस शब्दका दुरुपयोग करना है। जब हम शक्ति प्राप्त करेंगे और अपनी शर्ते पूरी करा सकेंगे तब सहयोग स्वतः ही हो जायेगा और वही ठीक भी होगा।

परन्तु असहयोगके सम्बन्धमें आज भी गलतफहमी होती है। इससे यह प्रकट होता है कि हम अब भी असहयोगके स्वरूपको नहीं जान सके हैं। हमारा असहयोग राक्षसी, अशान्त, विनयहीन अथवा द्वेषयुक्त नहीं है। शान्त असहयोगमें किसीके भी प्रति तिरस्कारके लिए स्थान नहीं होता। आनन्दशंकरभाईके[१] ज्ञानका या शक्तिका उपयोग विद्यापीठके लिए किया जाये तो उससे असहयोगको जरा भी हानि नहीं पहुँचती। हमने उन्हें विद्यापीठ-आयोगका अध्यक्ष बनाकर सरकारसे किसी भी प्रकारसे सहयोग नहीं किया है। प्रत्युत विद्यापीठने उन्हें अध्यक्ष बननेका निमन्त्रण देकर अपना ही गौरव बढ़ाया है और यही नहीं, असहयोगका शुद्ध स्वरूप भी बताया है, क्योंकि शान्त असहयोगीका किसी भी व्यक्तिके प्रति कोई तिरस्कार-भाव नहीं हो सकता। वाइसरायमें भी मनुष्यके जो गुण हों उनका उपयोग——यदि उसमें उनकी उपाधिका उपयोग न हो तो——हमें अवश्य करना चाहिए। यदि हम ऐसा न करें तो असहयोगीकी हैसियतसे मूर्ख ही गिने जायेंगे।

हम विद्यापीठ जैसी संस्था चलाकर राष्ट्रके धनका दुरुपयोग नहीं करते बल्कि सदुपयोग करते हैं। जो असहयोगको पाप समझते हैं हम यहाँ उनके दृष्टिकोणपर विचार नहीं कर रहे हैं। विद्यापीठको दान देनेवाले असहयोगके सिद्धान्तोंको माननेवाले लोग हैं। उनके धनका शिक्षाके इस महान प्रयोगमें उपयोग हो रहा है, यह उनके धनका व्यर्थ व्यय नहीं है। हाँ, इतना अवश्य होना चाहिए कि ज्यों-ज्यों संख्यामें कमी हो त्यों-त्यों शिक्षकोंके और विद्यार्थियोंके चरित्रबलमें वृद्धि हो। तभी राष्ट्रके धनका सदुपयोग हुआ माना जा सकेगा। यदि सरकार द्वारा स्थापित किया जानेवाला विश्वविद्यालय हमारे अध्यापकों को खींच लेगा तो मैं यह समझूँगा कि वे असहयोगके उपासक नहीं थे। हमें सरकार द्वारा स्थापित किये जानेवाले विश्वविद्यालयसे अपने कर्त्तव्यके प्रति अधिक दृढ़ और सचेत बनना चाहिए। उसमें धन-लाभ या मान-लाभ भले ही हो; परन्तु मैं यह जानता हूँ कि वह स्वराज्यका मार्ग नहीं है। यहाँ विद्या-

  1. आनन्दशंकर बापूभाई ध्रुव।