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असहयोग और राष्ट्रीय शिक्षा

  समाजके कल्याणार्थ आत्यन्तिक दुःख भोगनेकी शक्तिका विकास करना चाहिए। यदि पूर्व आफ्रिका भारतीय इतना करें और खादी न पहनें तो वे अधिक दोषी नहीं माने जायेंगे। खादी न पहननेके बावजूद यदि वे अपने सम्मानको बनाये रखना सीख जायें तो यह समझा जायेगा कि उन्होंने अपने धर्मका पालन कर लिया है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३०-५-१९२६

५९८. असहयोग और राष्ट्रीय शिक्षा[१]

'नवजीवन' के एक पाठक इस प्रकार लिखते हैं:[२]

मैं स्वयं तो असहयोगके किसी भी अंगके विषयमें जरा भी ढीला नहीं हुआ हूँ। शिक्षा सम्बन्धमें १९२०-२१ में मेरे जो विचार थे, वे आज भी ज्योंके-त्यों हैं और यदि मुझमें विद्यार्थियोंको और उनके अभिभावकों समझानेकी शक्ति होती तो आज एक भी विद्यार्थी सरकारी पाठशालामें न रहता। यदि 'नवजीवन' में बार-बार इस इस विषयकी चर्चा नहीं की जाती तो इसका कारण यह है कि इस समय हमारे सामने जो कार्य उपस्थित है वह व्याख्यानोंसे और लेखोंसे लोगोंको समझाकर सरकारी पाठशालाओंका त्याग करानेका नहीं है। तात्कालिक कार्य तो जो पाठशालाएँ असहयोगपर कायम हैं उनका पोषण करना ही है। मुझे यह बात खेदपूर्वक स्वीकार करनी चाहिए कि असहयोगी शिक्षाकी प्रवृत्तिमें खादीकी प्रवृत्तिकी वृद्धि नहीं हो रही है। संख्याकी दृष्टिसे तो उसमें भाटा हो रहा है। प्रसंगानुसार उसका उल्लेख करनेमें मुझे कोई संकोच नहीं होता; परन्तु उसका उल्लेख रोज-रोज करनेकी तो कोई आवश्यकता नहीं है। परन्तु उसमें ऐसा भाटा आनेसे मुझे कोई भय नहीं हो रहा है। यदि हम अपनी श्रद्धाको न छोड़ेंगे तो इस भाटेके बाद ज्वारका आना भी निश्चित ही है। आज जो पाठशालाएँ और विद्यालय असहयोगपर दृढ़ हैं वे उसपर शुद्धभावसे दृढ़ बने रहें और असह्योगके तत्त्वोंको जरा भी ढीला न होने दें तो परिणाम मंगलकारी ही होगा, यह मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं यह जानता हूँ कि प्रोप्रायटरी हाई स्कूलपर विपत्तिके बादल मँडरा रहे हैं। कुछ शिक्षक और बहुत-से विद्यार्थी उसे छोड़कर चले गये हैं। लेकिन इससे क्या हुआ? अब असहयोगका कार्य

  1. देखिए "राष्ट्रीय शिक्षा", ३-६-१९२६ भी।
  2. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने गांधीजीसे पूछा था: लोगोंका आम खयाल यह है कि आपका शिक्षाके क्षेत्रमें असहयोगका विचार अब शिथिल हो गया है। राष्ट्रीय शिक्षामें आम जनताकी रुचि भी कम हो गई है; क्या इस बातको देखते हुए शिक्षाके क्षेत्रोंमें असहयोगको नीतिको त्याग देनेमें और गुजरातमें शिक्षा-शास्त्रकी जो उच्च प्रतिभा उपलब्ध है, उसका अधिकतम लाभ उठानेमें बुद्धिमता न होगी? यह लाभ सरकार जो नया विश्व-विद्यालय स्थापित करनेका विचार कर रही है, उसमें सहयोग करके उठाया जा सकता है।