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५९३. पत्र: डी॰ वी॰ रामरावको

साबरमती आश्रम
२९ मई, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मैं समझता हूँ, आपको अपने माता-पिताको इस बातके लिए मनानेकी कोशिश करनी चाहिए कि वे आपको शान्तिनिकेतन जाने दें। लेकिन, जबतक आपको उनकी इजाजत नहीं मिल जाती, तबतक तो आपके लिए बेहतर यही होगा कि आप जहाँ हैं, वहीं रहकर अपने मनकी शान्ति बनाये रखें। माता-पिताकी इच्छाएँ चाहे जितनी भी अरुचिकर हों, किन्तु आपको उनका पालन करनेमें सुख और सन्तोष मानना चाहिए। माता-पिताकी अवज्ञा उसी हालतमें ठीक है, जब उनकी आज्ञाका पालन करना अनैतिक हो। यही बात तैराकीपर भी लागू होती है। आपको अपने माता-पिताको समझा-बुझाकर उनसे तैराकी सीखनेकी इजाजत लेनी चाहिए। अगर आप उनकी निगरानीमें तैरना सीखें तो आपके तैरना सीखनेमें शायद उन्हें कोई डर नहीं लगेगा।

जिन्हें धोखा दिया जाये उनपर अपनी धोखेवाजियोंको जाहिर कर देना आवश्यक है। इससे मनुष्य शुद्ध बनता है। माता-पिताके सामने अपनी गलती कबूल करनेसे उन्हें जो आघात लगेगा, वह क्षणिक होगा। जिस कारणसे शरीरकी गन्दी सतहको रगड़कर साफ करना जरूरी होता है, उसी कारणसे अपने किये हुए पापको स्वीकार करना भी आवश्यक होता है। भौतिक शरीरकी गन्दगीको दूर करनेके लिए जो महत्त्व बदन रगड़कर धोनेकी क्रियाका है, वही महत्त्व आत्मिक धरातलकी गन्दगीको दूर करनेकी दृष्टिसे स्वीकारोक्तिका है।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत डी॰ वी॰ रामराव


डिगमार्टी हाउस
बहरामपुर


(जि॰ गंजाम)

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९५८०) की माइक्रोफिल्मसे।