पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/५६६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

५८७ पत्र: डॉ० नॉरमन लीको

साबरमती आश्रम
२८ मई, १९२६

प्रिय मित्र,

श्री वझ द्वारा भेजा[१] गया गत मासकी २६ तारीखका आपका पत्र मिला। तदर्थ धन्यवाद। मैं इस पत्रकी कद्र करता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि विचारोंके ऐसे मुक्त आदान-प्रदानसे ही हम एक-दूसरेके निकट आते हैं। मेरे लिए तो 'राजनीति' शब्द ऐसा है जिसमें सभी बातोंका समावेश हो जाता है। मैं विभिन्न प्रवृत्तियोंको——राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक आदि—— एक-दूसरेसे बिलकुल अलग मानकर नहीं चलता। मैं सबको एक अविभाज्य वस्तु मानता हूँ——ऐसा समझता हूँ कि हरएक धारा दूसरी तमाम धाराओंसे मिलकर बहती है और उन्हें प्रभावित करती है। मैं आपकी इस मान्यतासे भी सहमत हूँ कि जिसे सही अर्थोंमें हमारी राजनीतिक स्वतन्त्रता कहा जायेगा, वह साम्प्रदायिक प्रश्न-जैसी बहुत-सी घरेलू समस्याओंको हल करनेकी हमारी क्षमतापर निर्भर करेगी। दूसरे शब्दोंमें, वह आन्तरिक सुधारोंपर निर्भर करेगी। अतएव, बाहरी बातें तो भीतरी बातोंकी सूचक-मात्र होंगी। मैं ऐसा बिलकुल नहीं मानता कि साम्प्रदायिक प्रश्नका समाधान नहीं हो सकता। फिलहाल वह मानवीय प्रयत्नोंके लिए एक चुनौती-सा जरूर लग रहा है। लेकिन, मुझे पूरा विश्वास है कि हममें इसे अन्ततः हल कर लेनेकी क्षमता है। अलबत्ता यह हो सकता है कि कोई समाधान ढूँढ पानेसे पहले दोनों सम्प्रदायोंके बीच रक्तपात हो। तमाम प्रयत्नोंके बावजूद कभी-कभी ये झगड़े दुर्निवार-जैसे बन जाते हैं।

लेकिन, अगर आप ऐसा मानते हों कि ये साम्प्रदायिक झगड़े अंग्रेजी हुकूमतपर हमारी निर्भरताके कारण नहीं हैं तो मैं कहना चाहूँगा कि आपका ऐसा मानना शायद ठीक न हो। तो मैं मानता हूँ कि अंग्रेजी हुकूमत 'फूट डालो और राज्य करो' की नीतिपर आधारित है और कभी-कभी तो अंग्रेज अधिकारियोंने स्पष्ट रूपसे इस नीतिको स्वीकार किया है। अगर सरकार चाहे तो वह इस समस्याका शीघ्र ही कोई स्थायी समाधान ढूँढनेमें बहुत सहायक हो सकती है। लेकिन यह तो मैं यह बतानेके लिए कह रहा हूँ कि आपको हमारे सामने जो कठिनाई है वह बताऊँ। इसका उद्देश्य बिना शासकोंकी सहायताके इस समस्याको हल न कर पाने की हमारी अक्षमताका बचाव करना नहीं है।

आपका दूसरा मुद्दा ऐसा है जिसपर कोई विचार व्यक्त करना मेरे लिए कठिन है। मैं यूरोपीय राजनीति या यूरोपीय इतिहासका वैसा सजग अध्येता नहीं हूँ कि

  1. देखिए "पत्र: एस॰ जी॰ वझेको", २३-५-१९२६।