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पत्र: देवदास गांधीको

  थे और गहरी नींद सो पाते थे। मेरी एक मित्रने मुझे लिख भेजा है कि चरखेने उनके थके-हारे मनको शान्ति प्रदान की। उस पत्रका एक अंश नीचे दे रहा हूँ:

जब...तो मैं तुरन्त अपने कमरेके एकान्तमें जा पहुँची और वहाँ अन्धेरेमें अपने दुःखसे जूझती रही। मैंने भगवानको पुकारा और कुछ देरतक उस तापकी ज्वालाको, जो मुझे सिरसे पाँवतक जला रही थी शान्त करनेकी कोशिश की और फिर थककर अपने चरखेपर जा बैठी। चरखा चलाना शुरू करते ही जो-कुछ हुआ उसे चमत्कारपूर्ण ही कहा जा सकता है। उसकी गतिके शान्त, संयत छंदने मुझे बल दिया। मेरा मन धीरे-धीरे सुस्थिर हो गया और इस विचारने कि मैं भारतको दरिद्र जनताकी सेवा कर रही हूँ, मुझे प्रभुके चरणोंके पास पहुँचा दिया।

यह कोई इक्के-दुक्के कातनेवालोंका ही अनुभव नहीं बल्कि बहुत सारे कतैयोंका ऐसा ही अनुभव रहा है। लेकिन ऐसा कहना बेकार है कि चरखा चलाना बहुतोंके आनन्दका कारण रहा है, इसलिए इसमें सभीको सुख मिलेगा। सभी मानते हैं कि चित्रकारी एक उत्तम कला है परन्तु सभी तो चित्रकार नहीं बन जाते।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २७-५-१९२६

५८३. पत्र: देवदास गांधीको[१]

बृहस्पतिवार [२७ मई, १९२६]

चि॰ देवदास,

अब मैंने तुम्हारे साथ फिर ज्यादती करना शुरू कर दिया है। मानो मुझे किसीका स्वस्थ रहना सहन ही न होता हो। एक क्षणका भी अवकाश नहीं बचता इसीलिए मैं तुम्हें लम्बे पत्र नहीं लिख पाता।

तुम्हारे पास किसे भेजा जाये, इसपर विचार कर रहा हूँ। मैं जिसे भेजूँ उसे तुम हिमालय ले जाओ, यह बात पसन्द आने लायक तो है लेकिन हमें इस तरह पैसे खर्च करनेका अधिकार कहाँ है? तुम तो अवश्य जाना। वहाँ मददके लिए तो किसी-न-किसीको जरूर भेजूँगा। किसको भेजूँ, यह तुम मुझपर छोड़ देना।

मैं देखता हूँ सुरेन्द्र तो अभी कतई नहीं निकल सकता। ब्रजकिशन आये तो ले जाना। वहाँसे किसी-न-किसीका साथ तो मिल ही जायेगा।

तुम्हारे लम्बे पत्र मुझे छोटे लगते हैं।

  1. यह देवदास गांधीकी बीमारीके दिनोंमें उनको लिखे अनेक पत्रोंमें से एक है।