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उसका रहस्य

उनमें एक मनु भी था। अतः इस यात्रामें मुझे मनु और असहयोगियोंके बीच अपना समय बाँट देना पड़ा। ज्यादा समय असहयोगियों को ही मिला। मनुने तो मुझे चन्द मिनटमें ही फुर्सत दे दी। रोगीके रूपमें मेरे लिए वह स्पर्धा योग्य था। कारण, यद्यपि वह छः महीनेसे अधिक समयसे खाटपर पड़ा हुआ था, फिर भी मैंने उसे बिलकुल प्रसन्न और निश्चिन्त पाया। इसलिए, असहयोगी मित्रोंसे बातचीत करनेके लिए उससे विदा लेते समय मुझे कोई दुःख नहीं हुआ।

असहयोगियोंने मेरा स्वागत इस प्रश्नसे किया: "एक ओर तो आप गवर्नरसे मिलने जाते हैं और दूसरी ओर अपनेको असहयोगी कहते हैं। यह कैसे हो सकता है?"

मैंने कहा: मुझे मालूम था कि आपकी व्यथा क्या है। मैं आपके सभी प्रश्नोंके पूरे-पूरे उत्तर दूँगा, लेकिन इसी शर्तपर कि मैं जो-कुछ कहूँ, उसमें से एक भी बात प्रकाशित न हो। अगर मुझे ठीक लगा तो मैं इस विषयपर 'यंग इंडिया' में भी लिखूँगा।

'ठीक है, हम कोई बात प्रकाशित नहीं करेंगे और अगर आप हमारे प्रश्नोंके उत्तर 'यंग इंडिया' में दे देंगे तो वह भी हमारे लिए काफी होगा। ऐसा नहीं कि आपके कार्यके औचित्यमें मुझे कोई सन्देह है, लेकिन अभी मैं ऐसे असहयोगियोंकी एक बहुत बड़ी संख्याकी ओरसे बोल रहा हूँ, जिन्हें आप अपने कार्योसे परेशानी और उलझनमें डाल देते हैं।"

तो ठीक है, आप अपने सारे प्रश्न कह सुनाइए। मैं उन सबके उत्तर देनेकी कोशिश करूँगा, हालाँकि आपके सामने यह स्वीकार करता हूँ कि इस सबमें सिर्फ समयकी बरबादी होगी, और कुछ नहीं। कारण, मुझे लगता है कि अब स्पष्टीकरण और समझाने-बुझानेका समय बीत गया। असहयोगियोंको तो सहज ही यह ज्ञात होना चाहिए कि हम असहयोगियोंकी जो आचार-संहिता है, उसके विरुद्ध मैं कुछ नहीं कर सकता। और अगर वैसा कुछ करूँ भी— क्योंकि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मुझसे भी गलतियाँ हो सकती हैं—तो उन्हें मेरा त्याग कर देना चाहिए और अपने विश्वासोंपर दृढ़ रहना चाहिए। भले ही उन्होंने असहयोगका सिद्धान्त मुझसे ही सीखा हो, लेकिन अगर उन्होंने उसे अच्छी तरह हृदयंगम किया है तो उनको ऐसा नहीं चाहिए कि वे अपने विश्वासोंका आधार मेरी मान्यताको बनायें। उनके विश्वासको मुझसे और मेरी कमजोरियों और गलतियोंसे मुक्त होना चाहिए। अगर मैं धोखेबाज साबित होऊँ या जरा नरम शब्दोंमें कहिए, तो अगर मैं अपनी राय बदल दूँ तो भी उन्हें अपने विश्वासोंपर दृढ़ रहकर मेरे दोष बतानेको तैयार रहना चाहिए। इसीलिए मैं कहता हूँ कि हमारी बातचीतसे सिर्फ राष्ट्रके समयकी बरबादी होगी, और कुछ नहीं। आस्थावान् असहयोगी जानते हैं कि उन्हें क्या करना है। वे उस कामको पूरा करें। मगर आप अपने प्रश्न तो बता ही दीजिए।

"बम्बईमें ऐसा कहा गया है कि आप बिना किसी निमन्त्रणके गवर्नरसे मिलने गये, वास्तवमें आपने उनको अपनी बात सुननेके लिए मजबूर किया। अगर ऐसा है तो क्या इसे सहयोग नहीं कहा जायेगा—और सो भी ऐसा सहयोग जिसमें