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५७९. पत्र: देवदास गांधीको

आश्रम
बुधवार, २६ मई, १९२६

चि॰ देवदास,

तुम्हारा पत्र मिला। भाईलालजीका भी मिला। कलका पत्र बहुत उतावलीमें लिखवाया था इसलिए एक बात रह गई। तुमने खड़े रहनेका प्रयत्न किया तब तुम्हें जो कमजोरी महसूस हुई वह कमजोरी नहीं थी; वह खड़े होने अथवा चलनेकी आदतका अभाव था। शायद तुम्हें याद न हो किन्तु जिस दिन कर्नल मैडॉकने मुझे पाखानेतक जानेकी अनुमति दी थी उस दिन उसने मुझे चेतावनी दी थी कि मेरे कदम लड़खड़ायेंगे, चक्कर आयेंगे, लेकिन उससे घबराना नहीं। एक दो बार सहारा लेकर चलनेके बाद चलनेकी आदत पड़ जायेगी। इसलिए तुम्हें खड़ा होनेपर चक्कर आये, इससे मुझे तनिक भी घबराहट नहीं हुई। लेकिन तुम्हारा घाव अभी बिलकुल भरा नहीं है, यह मैं समझ सकता हूँ। लेकिन ऐसे ऑपरेशनोंमें यह अनुभव सामान्य है। कोई भी डाक्टर शरीरका सब-कुछ तो नहीं जान सकता। इसलिए बादमें कोई-न-कोई उपद्रव देखनेमें आते ही हैं। लेकिन उनका उपाय आसानीसे हो जाता है। क्या इतना ही है कि बिस्तरपर ज्यादा समयतक पड़े रहना पड़ता है। अब तो मैंने मान लिया है कि भाईलालजी और तुम, दोनों अस्पतालसे साथ-साथ छूटोगे। यह तो तुम्हारी मनचाही बात हुई। हालाँकि तुम्हारा इरादा तो अस्पतालसे छुटनेके बाद भाईलालजीके लिए खासतौरसे रुकनेका था। वह लाभ तो अब शायद न मिलेगा। लेकिन यदि हमारा चाहा सब-कुछ हो जाये तो दुनियाका सत्यानाश भी हो जाये, है न? हमारी एक सच्ची और अच्छी धारणाके विरुद्ध कितनी ज्यादा व्यर्थ और दूषित धारणायें होती हैं?

पॉलका कल एक तार आया था, आज दूसरा है। इसमें वे लिखते हैं कि उन्होंने ६,००० रुपये इकट्ठे कर लिये हैं और उम्मीद करते हैं कि मैं जाना रद करनेकी आवश्यकता नहीं समझूँगा। मैं अपने पत्रके[१] उत्तरकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ लेकिन मुझे लगता है कि हमें जाना तो पड़ेगा ही। न जानेसे कदाचित् श्री पॉलकी स्थिति विषम हो जाये।

डॉ॰ दलालके सद्वयवहारके बारेमें तुम जो लिखते हो उससे मुझे आनन्द होता है। अब्बास साहब आ गये, यह ठीक हुआ। इनकी बहादुरीकी सीमा नहीं। केशू वहाँ रहा इसलिए वह काममें आयेगा ही।

२९ तारीखको केशू यहाँ आ जाये, यही काफी है।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५५२) की फोटो-नकलसे।

  1. देखिए "पत्र: के॰ टी॰ पॉलको", २३-५-१९२६।