५७२. पत्र: हेमप्रभा दासगुप्ताको
साबरमती आश्रम
रविवार, २३ मई, १९२६
इस वख्तका आपका पत्र बहुत ही अच्छा आया है। अगरचे आश्रममें जो सुखदुःख पाया उसका कथन तो कुछ भी नहीं है। मैं जानता हूं कि सोदपुरमें बहुत ही परिश्रम है। मैंने इस बारेमें सतीश बाबुको लिखा है। कैसा भी हो, तबीयत बिगाड़कर हरगीज सोदपुरमें नहीं रहना। बैंकमें जो रुपये रखे हैं उसमें से एक कोड़ी भी उठानी नहीं चाहिए। खद्दरका काम बगैर तपश्चर्या नहीं होनेवाला है यह मैं समझता हूं। परन्तु तपश्चर्या शक्ति अनुसार होनी चाहिए। ईश्वर आप दोनोंको शान्ति और शक्ति दे।
बापु
मूल पत्र (जी॰ एन॰ १६४७) की फोटो-नकलसे।
५७३. पत्र: बहरामजी खम्भाताको
साबरमती आश्रम
रविवार [२३ मई, १९२६][१]
आपका पत्र मिला। तुम्हारे पास आना मेरा धर्म था। श्रीमती एडीकी पुस्तक मैंने शुरू कर दी है। पढ़नेके बाद उसके बारेमें मैं आपको अवश्य लिखूँगा। लेकिन अभी तो आपको मेरी यही सलाह है कि फिलहाल आपको डाक्टरोंकी सामान्य सलाह और दवाका उपयोग करते रहना चाहिए। शरीरकी जितनी बन सके उतनी सार- सँभाल करनी चाहिए, इसमें कोई दोष नहीं; लेकिन उसकी खातिर धर्म छोड़नेमें महादोष है। शरीरको आत्माकी मुक्तिका क्षेत्र मानकर उसके लिए जो निर्दोष उपाय हो सकें वे करने चाहिए। अपनी तबीयतकी खबर मुझे लिखते रहना चाहिए। तेहमीना बहनको मेरा आशीर्वाद देना।
बापूके आशीर्वाद
२७५ हॉर्नबी रोड, फोर्ट, बम्बई
गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ४३६३) से।
सौजन्य: तेहमीना खम्भाता
- ↑ डाककी मुहरसे।