५६२. पत्र: गो॰ कृ॰ देवधरको
साबरमती
२३ मई, १९२६
आपका पत्र मिला। आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता होगी। जब भी आ सकते हों, आइए और जब आयेंगे तो कहनेकी जरूरत नहीं कि आश्रममें ही ठहरेंगे। मैं जानता हूँ कि शायद बरसात शुरू होनेसे पहले आपके यहाँ आनेकी सम्भावना नहीं है। अभी तो हम लोग यहाँ गरमीमें झुलस रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि आप भी हम सबके साथ इस भट्ठीमें झुलसें।
आशा है, श्रीमती देवधर अब ठीक होंगी। वे अगली सर्दियोंमें आश्रम आकर यहाँ कुछ दिन अवश्य रहें।
लौटनेपर मुझे मनोरमाका हाल अवश्य भेजिएगा।
हृदयसे आपका,
सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी, बम्बई
अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९५६३) की माइक्रोफिल्मसे।
५६३. पत्र: एस॰ जी॰ वझेको
साबरमती आश्रम
२३ मई, १९२६
आपका पत्र मिला। इस बातसे मुझे बड़ी खुशी हुई कि डॉ॰ नॉर्मन लीका सुन्दर पत्र मुझे आपकी मार्फत भेजा गया है। क्षमा-याचनाकी तो कोई बात ही नहीं थी। जहाँ खुला व्यवहार और ईमानदारी होती है, वहाँ नाराजगी असम्भव है। आशा है, अगली डाकसे डॉ॰ लीको उत्तर भेज दूँगा।
हृदयसे आपका,
अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९५६४) की माइक्रोफिल्मसे।