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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

दो नजरिये

पूरी इच्छा होते हुए भी जो दो वर्गोंके रूपमें भारतीयों और यूरोपीयोंका हार्दिक सम्बन्ध नहीं हो पाता है, उसका निर्णायक कारण यह है कि हमारे दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न हैं। हम यह कहते हैं कि जो सुधार दिये गये हैं वे अपर्याप्त हैं; शिक्षित वर्ग जनसमुदायका सबसे अच्छा प्रतिनिधित्व कर सकता है; और भाषा तथा धर्मकी अनेकताके बावजूद हम एक राष्ट्र हैं। यहाँ इन बातोंको सिद्ध करनेकी कोई जरूरत नहीं है। यही कहना काफी होगा कि भारतके शिक्षित लोग ऊपर लिखी बातोंको ईमानदारीके साथ मानते हैं।

परन्तु यूरोपीय लोगोंकी जो सच्ची राय है, वह यूरोपीय संघकी तरफसे भारतके प्रत्येक यूरोपीयको लक्ष्य करके लिखे गये इस घोषणापत्रमें स्पष्ट रूपसे और अत्यन्त संक्षेपमें प्रकट की गई है:[१]

इस प्रकार इस घोषणापत्रसे प्रकट हो जाता है कि दोनोंके विचारों और आकांक्षाओंमें जमीन-आसमानका अन्तर है; और जब दोनोंके बीच भेदकी इतनी बड़ी खाई है तब फिर उनके लिए एक-दूसरेके साथ मुक्त भावसे और स्वतन्त्र साझेदारोंके रूपमें मिलकर काम करना कैसे सम्भव हो सकता है? मात्र कृत्रिम सहयोग-समागम दोनोंके लिए पतनकारी ही हो सकता है, क्योंकि वे मनमें एक-दूसरेसे दुराव और एक-दूसरेके प्रति अविश्वास रखकर मिलते हैं। स्थिति बहुत दुःखद है, लेकिन सचाई भी यही है। इस दुःखद स्थितिको समाप्त करनेके लिए सबसे पहले जरूरत इस बातकी है कि इसमें निहित सत्यको हम देखें। दोनोंका मिलना वांछनीय है, दोनोंको मिलना ही चाहिए; लेकिन ऐसा होगा तभी जब हम एक ही तरहसे सोचना आरम्भ कर दें। और यह तभी होगा, जब हम भारतीय यह दिखा दें कि हम सचमुच ऐसी एकताकी तीव्र आकांक्षा करते हैं और एक राष्ट्रके रूपमें काम करके तथा जनसाधारणके लिए कष्ट उठाकर यह साबित कर दें कि हमारा यह विश्वास सच्चा है कि हम एक राष्ट्र हैं, और हम वास्तवमें जनसाधारणका प्रतिनिधित्व करते हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २०-५-१९२६
  1. घोषणापत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। उसमें कहा गया था कि यूरोपीयोंने मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ट-सुधारोंका विरोध इसलिए किया कि भारतीय लोग एक राष्ट्र नहीं हैं, और शिक्षित वर्ग जनसाधारणका प्रतिनिधित्व नहीं करता। जनसाधारणने तो कभी भी प्रतिनिधि सरकारको माँग ही नहीं की।