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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रास्ता सिद्ध होगा। आन्तरिक विकास और स्थायित्व शान्तिके मार्गके निश्चित वरदान हैं। हम इसको इसलिए अस्वीकार करते हैं कि हमें लगता है कि यह तो उस शासककी इच्छाके आगे झुकना है, जिसने अपने-आपको हमारे ऊपर जबरन लाद रखा है। लेकिन, जिस क्षण हमें इस बातका भान हो जायेगा कि केवल कहने भरको ही ब्रिटिश हुकूमत हमपर जबरदस्ती थोपी हुई है, किन्तु वास्तवमें अपने जान-मालकी क्षति सहनेकी अपनी अनिच्छाके कारण हम भी इसके थोपे जानेमें शरीक हैं, उस क्षण हमें सिर्फ इतना करनेकी जरूरत रह जायेगी कि चुप रहकर प्रकारान्तरसे इस गुलामीको पोषण देनेके अपने नकारात्मक रुखको बदल डालें। अपना रुख बदलनेसे हमें जो कष्ट सहने होंगे, वे युद्धका रास्ता अपनानेका प्रयत्न करनेपर होनेवाली शारीरिक तथा नैतिक क्षतिकी तुलनामें बहुत कम होंगे। और युद्धके कष्ट सहनेसे दोनों पक्षोंको नुकसान पहुँचता है। शान्तिका रास्ता अपनाकर जो कष्ट सहे जाते हैं, उनसे दोनों पक्षोंको लाभ होता है। वे कष्ट तो शिशु जन्मके आनन्ददायक कष्टके समान होंगे।

हमें १९२०-२१ की घटनाओंसे जल्दबाजीमें कोई सामान्य निष्कर्ष निकालकर भ्रममें नहीं पड़ना चाहिए। उस शानदार अवधिकी उपलब्धि महान् थी, फिर भी यदि हम अपने अपनाये रास्तेपर ईमानदारीसे चले होते और हममें आस्था होती तो जो उपलब्धि हुई होती, उसकी तुलनामें यह उपलब्धि कुछ भी नहीं है। हम मुँहसे जब अहिंसाकी दुहाई देते थे, तब हममें से बहुतेरे लोगोंके दिलोंमें हिंसा थी। और इस तरह यद्यपि हम अपने सिद्धान्तके प्रति, जहाँतक हमने उसे स्वीकार किया था, झूठे थे, लेकिन हम दोष सिद्धान्तको देते थे और अपने-आपको दोष देने या सुधारनेके बजाय हमने सिद्धान्तमें विश्वास खो दिया। जो व्याधि हमारे अन्दर जहर फैला रही थी, चौरी-चौरा काण्ड उसका एक लक्षण था। हमारा दावा था कि हमारा रास्ता शान्ति-अहिंसाका रास्ता है। हम उस दावेको पूरी तरह सिद्ध नहीं कर पाये। हमें दुश्मनोंके व्यंग वाक्योंकी परवाह नहीं करनी चाहिए। वे तो जहाँ जरा-सी भी हिंसा नहीं थी, वहाँ भी हिंसा देखते थे। लेकिन हम अपने "अन्तरकी सूक्ष्म आवाज" के निर्णयकी अवहेलना नहीं कर सकते थे। वह अन्दर छिपी हिंसाको जानती थी।

शान्तिका रास्ता सत्यका रास्ता है। सत्यपरायणता शान्तिके पालनसे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः मिथ्याभाषण हिंसाकी जननी है। सच्चे आदमीकी वृत्ति बहुत समयतक हिंसात्मक नहीं रह सकती । सत्यके अन्वेषणके दौरान वह देखेगा कि उसे हिंसासे काम लेने की कोई जरूरत नहीं है, और वह यह भी जान लेगा कि जबतक उसमें जरा भी हिंसा है, तबतक वह सत्यको नहीं पा सकेगा, जिसकी वह तलाश कर रहा है।

सत्य तथा अहिंसा और असत्य तथा हिंसाके बीचका कोई रास्ता नहीं है। हो सकता है, हममें मनसा-वाचा-कर्मणा पूरी तरहसे अहिंसक बनने योग्य शक्ति कभी नहीं आये, परन्तु हमें अपना लक्ष्य अहिंसाको ही बनाना चाहिए और उस दिशामें सतत प्रगति करनी चाहिए। स्वतन्त्रताकी प्राप्ति व्यक्तिको, राष्ट्र अथवा विश्वको ठीक