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५४६. युद्ध या शान्ति

विश्व-युद्धपर श्री पेजकी श्रेष्ठ पुस्तिकाके[१] मुख्य अंशोंको मैने अकारण ही नहीं उद्धृत किया था। आशा है, पाठकोंने इन अध्यायोंको समुचित ध्यानसे पढ़ा होगा। श्री पेजने निर्णयात्मक रूपसे यह सिद्ध कर दिया है कि दोनों ही पक्ष बराबर दोषी थे, तथा दोनोंने बर्बर और अमानवीय कृत्य किये। हमें यह जाननेके लिए श्री पेजकी सहायता जरूरी नहीं थी कि इतिहासमें वर्णित किसी भी युद्धमें इतनी जानें नहीं गई जितनी कि इस युद्धमें गई। नैतिक हानि तो और अधिक हुई। आत्माका हनन करनेवाली विषैली शक्तियों (झूठ और कपट) को भी इसमें उतना ही विकसित किया गया जितना कि मानव शरीरको नष्ट करनेवाली शक्तियोंको। नैतिक दृष्टिसे भी इसके परिणाम उतने ही भीषण सिद्ध हुए हैं जितने कि भौतिक दृष्टिसे। युद्धके कारण यौन-नैतिकताका जो पतन हुआ है, मानव-समाजपर पड़नेवाले उसके प्रभावका अभी ठीक अन्दाज नहीं लगाया जा सकता। सद्गुणके सिंहासनपर दुराचार जमकर बैठ गया है। फिलहाल मनुष्यके अन्दरका पशु प्रबल हो उठा है।

परवर्ती प्रभाव सम्भवतः वास्तविक और तात्कालिक प्रभावोंसे भी अधिक भीषण हैं। यूरोपके एक भी राज्यमें सरकारमें स्थायित्व नहीं है। कोई भी वर्ग अपनी स्थितिसे सन्तुष्ट नहीं है। हर वर्ग दूसरे वर्गोंके नुकसानके बलपर अपनी स्थिति सुधारना चाहता है। राज्योंके संघर्षने अब प्रत्येक राज्यमें आन्तरिक संघर्षका रूप ले लिया है।

भारतको अपना रास्ता चुनना है। वह यदि चाहे तो युद्धका रास्ता चुनकर देख ले; नतीजा यही होगा कि जितनी गिरी हालतमें वह अभी है उससे भी अधिक नीचे गिर जायेगा। लगता है, हिन्दू-मुस्लिम झगड़ेंके रूपमें वह युद्धकलाका पहला पाठ पढ़ रहा है। यदि भारत युद्धके जरिये स्वराज्य हासिल भी कर ले तो उसकी दशा फ्रांस और इंग्लैंडसे अच्छी नहीं होगी, बल्कि शायद उनसे भी बदतर होगी। पुराने उदाहरण अब झूठे पड़ गये हैं। जापान द्वारा की गई तुलनात्मक प्रगति भी हमारा मार्गदर्शन नहीं कर सकती, क्योंकि रूस-जापान युद्धके बाद युद्ध-विज्ञानने अब कहीं अधिक प्रगति कर ली है। इसके परिणामोंका अध्ययन यूरोपकी वर्तमान स्थितिसे ही किया जा सकता है। हम बेखटके ऐसा कह सकते हैं कि यदि भारत युद्धके द्वारा अपने ऊपरसे ब्रिटिश शासनका जुआ उतार फेंकता है तो निश्चित है कि उसे अवश्य ही उन स्थितियोंसे गुजरना पड़ेगा जिनका वर्णन श्री पेजने इतने सजीव ढंगसे किया है।

पर शान्तिका रास्ता भी उसके लिए खुला हुआ है। यदि वह धैर्यसे काम ले तो उसकी स्वतन्त्रता सुनिश्चित है। शान्तिका वह रास्ता यद्यपि हमें अपनी आतुरतावश सबसे लम्बा लग सकता है, तथापि वह स्वतन्त्रता प्राप्तिका सबसे छोटा

  1. देखिए खण्ड २९, पृष्ठ २५६-५७।