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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं। दोमें से एक भी चीज हमारी इच्छाके अनुकूल होगी तो दूसरी भी आसानीसे हमारी इच्छाके अनुकूल हो जायेगी। परन्तु जबतक उनका व्यापार हमारी इच्छाके अनुकूल नहीं होता तबतक राज्य भी हमारी इच्छाके अनुकूल न होगा और यह बात बड़ी आसानीसे समझमें आ सकती है।

चरखेसे अधिक अच्छी दूसरी राजनैतिक प्रवृत्ति मुझे मिले तो मैं चरखेको फौरन इस स्थानसे हटा दूँ। अबतक ऐसी प्रवृत्ति मेरी जानकारीमें नहीं आई है और न किसीने मुझे बताई ही है। यदि ऐसी कोई प्रवृत्ति हो तो मैं उसे जाननेके लिए बहुत ही उत्सुक हैं।

(५) चरखेसे रोटी मिल सकती है यह बात अब 'नवजीवन' के पाठकोंके सामने सिद्ध करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। खादी कार्यालयोंके आँकड़ोंसे ही यह बात साबित हो जाती है कि हजारों गरीब औरतें खादी द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त कर रही हैं। किसीने भी अबतक इस बातसे इनकार नहीं किया है कि चरखेसे दिनमें कमसे-कम एक आना कमाया जा सकता है और इस देशमें ऐसे गरीब लोग करोड़ों हैं जिन्हें दिनमें एक पैसा भी नहीं मिलता। जहाँ यह स्थिति है वहाँ चरखा और रोटीमें कितना निकट सम्बन्ध है यह सिद्ध करनेकी आवश्यकता ही नहीं है।

चरखेकी प्रवृत्तिसे देशको नुकसान हुआ है, यह कहनेवालोंको नुकसान सिद्ध करना चाहिए। यह प्रवृत्ति ही ऐसी है कि उसमें परिश्रम भ्रष्ट नहीं होता। उसमें विघ्न भी नहीं हो सकता और उसका अल्पमात्र पालन भी बड़ेसे-बड़े भयसे हमारी रक्षा करता है। खादीकी कुछ दूकानें खुलीं और बन्द हो गईं तो उससे क्या हुआ? ऐसा तो हर व्यापारमें हुआ करता है। दूकानें खोलनेमें जो रुपया खर्च हुआ था वह देशमें ही रहा है और उससे जो अनुभव मिला उससे हम आगे बढ़े हैं। यदि कुछ दूकानें बन्द हो गई हैं तो कुछ नई व्यवस्थित रूपमें स्थापित भी हुई हैं और ऐसे बहुत-से उदाहरण मिल सकेंगे। जिन्हें ऐसे उदाहरण इकट्ठे करने हों उन्हें 'नवजीवन' के पिछले पृष्ठ देखने होंगे।

(६) जब मैंने कताई उद्योगको विकसित करनेके लिए किसी भी पोषक उद्योगको त्यागनेकी कभी कल्पनातक नहीं की है तब मैं उसकी सिफारिश कैसे कर सकता हूँ? हिन्दुस्तानमें करोड़ों लोग निरुद्यम रहते हैं, इसी आधारपर तो चरखेकी प्रवृत्ति आरम्भ की गई है। मुझे स्वीकार करना चाहिए कि यदि भारतमें ऐसे निरुद्यमी लोग नहीं हैं तो फिर इस देशमें चरखेके लिए कोई स्थान ही नहीं हो सकता। हिन्दुस्तानके गाँवोंकी स्थितिका जिन्हें ज्ञान है वे सब यह समझते हैं कि आज भारत निरुद्यमियोंसे भरा हुआ है और उनके कारण बर्बाद हो गया है। मैं जो मध्यमवर्गके लोगोंसे यज्ञार्थ चरखा चलानेके लिए कहता हूँ वह भी बचे हुए समयमें ही। चरखेकी प्रवृत्ति किसी उद्योगकी विनाशक प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि वह तो पोषक प्रवृत्ति है, और इसीलिए मैंने उसे अन्नपूर्णाकी उपमा दी है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १६-५-१९२६