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५३९. अज्ञानका जाला

एक अंग्रेज लेखकने लिखा है कि जब सत्यका समर्थन करना हो तो उसे प्रकट करनेमें जो परिश्रम होता है उससे कहीं अधिक परिश्रम अज्ञानसे उत्पन्न भ्रमको दूर करनेमें करना होता है। सत्य तो स्वयंसिद्ध है इसलिए अज्ञानका जाला हटाते ही स्वतः दिखाई देने लगता है। चरखेकी सीधी-सादी प्रवृत्तिके विषयमें भी ऐसा ही अज्ञान फैला हुआ है। चरखेपर, जितना बोझ वह उठा सकता है उससे अधिक बोझ रखा जाता है और जब वह उससे नहीं उठता तब उसपर दोष लगाये जाते हैं, जबकि असलमें तो वह दोष उस बोझके रखनेवालेका ही होता है। इसका एक बढ़िया उदाहरण एक खादी-प्रेमी द्वारा प्रेषित पत्रके कुछ अंशोंमें मिलता है। इन अंशोंका सार इस प्रकार है:

(१) अब तो आप चरखेको कामधेनु मनवानेका प्रयत्न करने लगे हैं। इससे हमें तो चरखेसे अरुचि ही होती है और इसी कारण हम पढ़े-लिखे लोग आपका और चरखेका त्याग करते हैं।

(२) चरखा शायद छोटे-छोटे गाँवोंमें चलाया जा सकता है और यदि आप ऐसा करें तो आपकी टीका कोई न करेगा और लोग आपको शायद प्रोत्साहन भी देंगे।

(३) किन्तु यदि आप यह मनवाना चाहे कि चरखेसे मोक्ष मिलता है तो हमें कहना होगा कि आपका यह प्रयत्न एकदम हास्यास्पद है। आप बड़े हैं इसलिए शायद कुछ भोले लोग इसको सहन कर लें, परन्तु हम पढ़े-लिखे लोग तो अब इसे कभी सहन न करेंगे क्योंकि आपने तो अति ही कर दी है और जबसे आपने क्षेत्र- संन्यास लिया है तबसे तो यदि किसीको ब्रह्मचर्य का पालन करना हो तो उसका उपाय भी आप चरखा चलाना ही बताते हैं, बंगालमें नजरबंद निरपराध देशभक्तोंको छुड़ाना हो तो भी आप कहते हैं कि चरखा चलाओ। आप हिन्दुस्तानकी आर्थिक स्थिति सुधारनेका उपाय भी चरखा चलाना बताते हैं और भाला-बरछी चलानेमें समर्थ रण-निपुण सिपाहीसे भी कहते हैं, चरखा सँभालो। आप अपना यह पागलपन देख क्यों नहीं पाते, यह आश्चर्यकी बात है।

(४) यदि हिन्दुस्तान प्रतिवर्ष साठ करोड़ रुपयेका कपड़ा न खरीदे तो उससे ब्रिटेनका क्या बिगड़ेगा? क्या उससे अंग्रेज लोग यहाँ राज्य करना छोड़ देंगे? आप कहते हैं कि चरखेकी प्रवृत्तिसे बढ़कर दूसरी कोई राजनैतिक प्रवृत्ति नहीं, यह आपकी कितनी बड़ी भूल है?

(५) चरखेसे गरीबोंको रोटी मिल सकती है, यह तो अभी आपको सिद्ध करना है। चरखेकी प्रवृत्तिसे हानि अवश्य हुई है। देखिये न, खादीकी कितनी दुकानें बन्द हो गई हैं?