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५३१. पत्र: छोटालालको

साबरमती आश्रम
बृहस्पतिवार, १३ मई, १९२६

चि॰ छोटेलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हें मेरा तार भी मिल गया होगा। फिलहाल सबसे अच्छा यही है कि वहाँकी स्थितिका खूब गहरा अध्ययन करो और जब गये ही हो तो यह ठीक ही है कि वहाँका अनुभव प्राप्त कर लो...[१]और जो विचार अभी तुम्हारे मनमें आये हैं वे भी परिपक्व हो जायेंगे। आश्रमको सबकी गरज है और किसीकी भी नहीं है। आश्रमके विषयमें आश्रमवासियोंकी भी यही स्थिति होनी चाहिए। उन्हें आश्रमकी गरज होनी अवश्य चाहिए तथापि उन्हें निर्भय भी होना चाहिए। उन्हें आश्रमकी गरज तभीतक होनी चाहिए जबतक उन्हें ऐसा लगता रहे कि आश्रम उनके आत्म-विश्वासका पोषक है। जब आश्रम उनके आत्मविश्वासके लिए घातक सिद्ध हो उस समय उन्हें उसका निर्भयतापूर्वक त्याग करना ही चाहिए। इसलिए तुम्हें आश्रममें रखनेमें मैं तुम्हारा और आश्रमका, दोनोंका, भला देखता हूँ। इसलिए तुम्हें यह विचार करनेकी तनिक भी आवश्यकता नहीं कि मैं मात्र तुम्हारे हितको ही ध्यानमें रखकर तुम्हें आश्रममें रखना चाहता हूँ, भले ही उससे आश्रमका हित हो या अहित। तुम बहुत ज्यादा विचार करनेकी अपनी आदत छोड़ दो। इससे पहले मैंने तुम्हें जो पत्र लिखा है वह तुम्हें मिला होगा; उसपर विचार करो और निश्चिन्त बनो।

देवदासने अपेन्डिसाइटिसका ऑपरेशन करवाया है, यह खबर तुम्हें मिल ही गई होगी। ऑपरेशन रविवारको हुआ था। आज पत्र आया है। उससे पता चलता है कि उसे काफी आराम है। थोड़े दिनोंमें वह अस्पतालसे मुक्त हो जायेगा। वहाँ बा, महादेव और जमनालालजी हैं। आज मैं गवर्नरसे मिलनेके लिए महाबलेश्वर जा रहा हूँ। बीचमें देवदाससे तो मिलना ही है।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५०५) की फोटो-नकलसे।

  1. जैसा कि साधन-सूत्रमें है।