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५२६. कट्टरपन

पूर्वग्रह बहुत मुश्किलसे दूर होते हैं। यद्यपि यह बात आम तौरपर कट्टरपन्थी हिन्दू समाज भी स्वीकार करता है कि दलित वर्गोंके साथ हिन्दुओंने अमानवीय अन्याय किया है, किन्तु कुछ लोग जो अन्य बातोंमें काफी उदार दृष्टिकोण रखते हैं, पूर्वग्रहसे इतने अन्धे हो गये हैं कि उन्हें हमारे दलित देशभाइयोंके साथ किये जानेवाले व्यवहारमें कोई अन्याय दिखाई ही नहीं देता। मसलन एक सज्जन लिखते हैं:[१] मैं उन लोगोंसे सहमत नहीं हूँ जो कहते हैं कि अस्पृश्य लोग शोषित और दलित हैं।...मुझे तो लगता है कि उन्हें ऊपर उठाने, उन्हें देशके दूसरे समुदायोंकी बराबरीका दर्जा दिलानेके लिए आप जो काम कर रहे हैं, उसका विफल होना निश्चित है। व्यक्तिशः यद्यपि मैं यह महसूस करता हूँ कि सामाजिक दृष्टिसे उन्हें ऊपर उठानेके लिए बहुत-कुछ करना चाहिए, किन्तु यह काम जादूकी तरह कोई एक-दो दिनोंमें नहीं किया जा सकता। उन्हें शिक्षा देनेके लिए, उनको आर्थिक कठिनाईसे मुक्त करनेके लिए, उन्हें शराब पीने और गायोंकी हत्या करने तथा मृत पशुओंका मांस खाने-जैसी बुराइयोंका त्याग करनेपर राजी करनेके लिए करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ेंगे...

बुराई तो अस्पृश्य कहे जानेवाले लोगोंको न छूनेमें है। अगर कोई शराब पीता है, गायोंकी हत्या करता है और मृत पशुओंका मांस खाता है तो भी क्या हुआ? इसमें सन्देह नहीं कि वह बुरा काम करता है, लेकिन छिपकर तथा और भी भयंकर पाप करनेवाले लोगोंसे अधिक बुरा काम नहीं करता। किन्तु, जिस प्रकार छिपकर पाप करनेवाले लोगोंको समाज अस्पृश्य नहीं मानता, उसी प्रकार उन्हें भी अस्पृश्य नहीं मानना चाहिए। पापियोंसे घृणा नहीं करनी चाहिए। इसके विपरीत उनपर तरस खाना चाहिए और पापसे मुक्त होनेमें उनकी मदद करनी चाहिए। हिन्दुओंके बीच अस्पृश्यताकी प्रथा उस अहिंसा-धर्मकी अस्वीकृति है, जिसका हमें अभिमान है। पत्र-लेखकने अस्पृश्योंकी जिन बुराइयोंकी शिकायत की है, उनके लिए खुद हम लोग जिम्मेवार हैं। उन्हें गलत रास्तेसे विमुख करनेके लिए हमने क्या किया है? क्या हम अपने-अपने परिवारोंके गुमराह सदस्योंको सुधारनेके लिए काफी पैसा खर्च नहीं करते? क्या अस्पृश्य लोग हमारे विशाल हिन्दू परिवारके सदस्य नहीं हैं? सच तो यह है कि हिन्दू धर्म हमें समस्त मानव जातिको अविभाज्य और संयुक्त परिवार माननेकी सीख देता है और समस्त मानवों द्वारा किये जानेवाले बुरे कर्मोंके लिए हममें से एक-एकको जिम्मेवार मानता है। लेकिन, अगर इस सिद्धान्तकी व्यापकताके कारण इसके अनुसार आचरण करना सम्भव न हो तो हम कमसे-कम इतना तो समझें कि अस्पृश्य लोग और हम एक हैं, क्योंकि हम उन्हें हिन्दू मानते हैं।

  1. यहाँ केवल कुछ अंशोंको ही उद्धृत किया जा रहा है।