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५२४. पत्र: सेवारामको

साबरमती आश्रम
१२ मई, १९२६

प्रिय मित्र,

आत्माका अस्तित्व शरीरसे अलग है तथा वह शरीरके न रहनेपर भी बनी रहती है——इस जीवन्त विश्वाससे निर्भीकता आती है। और ऐसा विश्वास सभी सांसारिक इच्छाओंको लगातार निस्सार समझने से प्राप्त होता है।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत सेवाराम


२२, जेल रोड


लाहौर

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९५५१) की फोटो-नकलसे।

५२५. पत्र: छोटालालको

आश्रम
बुधवार, १२ मई, १९२६

चि॰ छोटालाल,

तुम्हारा पत्र मिला। मेरे साथ की हुई प्रतिज्ञा याद रखना कि वनवासमें अपने शरीरको तुम्हें खूब कसना है और वह प्रसन्न रहे बिना नहीं हो सकता। दूध, दही जो भी माफिक आये निस्संकोच ठीक मात्रामें लेना ही चाहिए। अभी तो वहाँ शरीरको अच्छी तरहसे कसना और जो काम हो सके वह करना। इस समय विनोबा वहाँ होते तो तुम्हें अधिक आनन्द आता, यह मैं समझता हूँ। लेकिन अब विनोबाकी गद्दी जितनी बने उतनी उन्हें सँभालना है।" जितनी बने" यदि क्रिया-विशेषण न लगाना पड़े तो कितना अच्छा हो। ऐसा करना तुम्हारे हाथमें ही है। राजाजीको मैं पत्र लिख रहा हूँ। वे तो तुम्हें अवश्य स्वीकार करेंगे। उन्हें १५ जूनतक यहाँ आ ही जाना चाहिए। यह समय अब बहुत दूर नहीं है इसलिए मैं मानता हूँ कि वे यहाँ आकर ही निश्चय करेंगे। तथापि देखता हूँ कि क्या होता है। तुम अपनी मनोदशाका मुझे पूरा-पूरा चित्रण करते रहना।

खानेका क्या प्रबन्ध किया है सो बताना।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५५३) की माइक्रोफिल्मसे।