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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं पहली ट्रेनसे आऊँगा। मुझे रेवाशंकरभाईके यहाँ ले जाना। देवदासकी तबीयत ठीक होगी तो नहा-खाकर उसे देखने जाऊँगा। अन्यथा सीधे स्टेशनसे ही देखने चला जाऊँगा। पूना तो उसी दिन जाना चाहिए, उसमें मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी। उसी रात यानी शुक्रवारको ९ बजे महाबलेश्वर पहुँच जानेका इरादा है। रेवाशंकरभाईको खबर दे देना।

तुम्हारा परिचय है तो भी मेहताको मोटरके लिए न लिखा होता तो ठीक होता। वह सरकारकी ओरसे बन्दोबस्त करे तो ठीक नहीं होगा। पर अब कोई फेरफार न करना।

तुम देखोगे कि शुक्रवारको ही महाबलेश्वर पहुँच जानेसे गवर्नरको मिलनेके लिए दो ही दिन रह जायेंगे। मंगलवारको सवेरे वहाँसे चल देना चाहिए।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (जी॰ एन॰ २८६४) की फोटो नकलसे ।

५१२. पत्र: के॰ सन्तानम्को

साबरमती आश्रम
११ मई, १९२६

प्रिय सन्तानम्,

राजगोपालाचारी जब आश्रम आये थे, उस समय उन्होंने मुझसे आपकी कठिनाइयोंके बारेमें बातचीत की थी। मुझे आपसे सहानुभूति है। लेकिन, आचारके किसी सिद्धान्तका उसकी पूरी विशुद्धतामें पालन करना कठिन है। कोई इसके लिए अधिकसे- अधिक प्रयास करे, यह तो ठीक है, लेकिन जबतक उस आदर्श ऊँचाईतक न पहुँचूँगा तबतक सेवा-कार्य ही न करूँगा, ऐसा आग्रह रखनेका मतलब तो उस ऊँचाई तक पहुँचने की सम्भावनाको ही समाप्त कर देना है। हम सचमुच सेवा-कार्य करके और सेवा-कार्य करते हुए गलतियाँ करनेकी जोखिम उठाकर ही ऊपर उठते हैं। हममें से कोई भी व्यक्ति सर्वथा त्रुटिहीन नहीं है। हममें से किसी भी व्यक्तिमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह हमारी समस्त आध्यात्मिक महत्वाकांक्षाको साकार कर सके। फिर भी, हमें अधिकसे-अधिक विनम्र ढंगसे सेवा कार्य जारी रखना है और यह आशा बनाये रखनी है कि इस सेवाके बलपर हम कदाचित् किसी दिन उस महत्वाकांक्षाको साकार कर सकेंगे। अगर हम सभी यही कहेंगे कि जबतक हम वैसे पूर्ण नहीं बनते तबतक सेवाकार्य करेंगे ही नहीं, तब तो कोई सेवा-कार्य होगा ही नहीं। असलियत यह है कि वह पूर्णता सेवाके द्वारा ही आती है। अगर आप यह कहें कि जबतक हम पूर्ण नहीं बन जाते तबतक हमें सत्ता नहीं लेनी चाहिए या उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए तो मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। और इसलिए, कभी कोई सत्ता न लेना और यदि मजबूरन लेनी ही पड़े तो उसका उपयोग मात्र सेवाके लिए करना