५१०. पत्र: देवदास गांधीको
साबरमती आश्रम
रविवार, ९ मई, १९२६
तुम्हारे सब पत्र अर्थात् तीनों आज एक साथ मिले। ऐसा कैसे हुआ होगा, सो समझमें नहीं आता। जब यह पत्र तुम्हें मिलेगा तबतक तुम्हारे ऑपरेशनको २४ घंटे हो गये होंगे और तुम हास-परिहास कर रहे होगे। मुझे चिन्ता जैसी कोई बात तो रही ही नहीं है। शुरूसे ही ऑपरेशनका डर नहीं लगा। हालाँकि मेरे सामने एक ऑपरेशन हुआ था और उसका परिणाम मृत्यु निकला था। लेकिन मैं देख सका था कि उसका कारण डाक्टरकी अयोग्यता थी। यह जोहानिसबर्गकी बात है। आज कुमी यहाँ आई है। उसने तो सोचा था कि बा होगी ही। पण्डितजी आज आ गये हैं और इस तरह आश्रम पुनः भरता जा रहा है। अन्य समाचार तुम्हें नहीं लिखता; जमनालालजीको लिख रहा हूँ। तुम्हें यह जो विश्राम मिला है इसका उपयोग तुम आत्म-निरीक्षण करनेमें करना। बहुत करके मैं शुक्रवारको तो तुम्हें मिलूँगा ही।
गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५४३) की फोटो-नकलसे।
५११. पत्र: जमनालाल बजाजको
सोमवार
१० मई, १९२६
तुम्हारा और महादेवका——दोनोंके पत्र मिले। मैं तो निश्चिन्त ही था; और हूँ। क्लोरोफार्ममें कुछ जोखिम तो होती ही है। वह तो किसी भी ऑपरेशनमें रहता ही है। देवदासको कहना कि अभी भी दर्द होता हो तो घबराए नहीं। कितने ही रोगियोंको दर्द रहता है। पर वह दो दिनका होता है। यह पत्र मिलनेतक तो दर्द बिलकुल चला गया होगा।
महादेवका भेजा हुआ अनुवाद मिल गया है। यह और वालजीका अनुवाद मिलाकर अब (२॥ बजे) तक सत्रह कालम [मेटर] तैयार हो गया है। इसलिए अब पत्र लिखने बैठा हूँ।
तुम्हारी इन्दौर-यात्रा मुल्तवी करनेकी मैं जरूरत नहीं देखता। महाबलेश्वरमें तो कुछ भी होनेवाला नहीं है। इन्दौरमें तो काम है। यहाँसे मैं किसे साथ लाऊँगा, यह निश्चय नहीं किया है। कोई एक होगा। बहुत करके तो सुब्बैया ही होगा।