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५०४. टिप्पणी

पाटणवाड़ियोंमें सुधार[१]

पाटणवाड़िया कौममें जो सुधार हुए हैं उनसे पता चलता है कि यदि हम गरीब और जंगली माने जानेवाले हिन्दुस्तानके असंख्य लोगोंके जीवनमें प्रवेश करें तो कितना ज्यादा काम हो सकता है और इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी ठोस सेवा करनेके लिए किस तरहकी शिक्षाकी आवश्यकता है। हम भाई रविशंकरकी सेवासे देख सकते हैं कि इस कार्यके लिए अक्षर-ज्ञान, अंग्रेजीका ज्ञान, डिग्रियों आदिकी अपेक्षा लोकप्रेमकी, कसे हुए शरीरकी और निर्भयताकी ज्यादा आवश्यकता है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ९-५-१९२६

५०५. पत्र: ए॰ ए॰ पॉलको[२]

साबरमती आश्रम
९ मई, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। कोई कार्यक्रम एक साल पहलेसे निश्चित रूपसे बना सकना मेरे लिए बहुत कठिन है। इसलिए मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि निमन्त्रणको मैं स्वीकार कर लूँगा, लेकिन अन्तिम निर्णय तो यथासमय ही होगा। हो सकता है कि कार्यक्रमकी अवधि कम करनी पड़े और ऐसा भी हो सकता है कि भारतीय मसलोंमें मैं इतना ज्यादा उलझा होऊँ कि भारतसे बाहर न निकल सकूँ। निमन्त्रणको स्वीकार करनेके साथ मेरा जो अनिश्चय जुड़ा हुआ है, पता नहीं उसके रहते सम्बद्ध संस्थाएँ मुझे निमन्त्रित करेंगी भी या नहीं।

कृपया उन मित्रोंको यह भी बता दें कि यदि मेरा भारतसे बाहर जाना हुआ भी तो मेरे साथ दो अन्य साथी भी होंगे।

  1. गांधीजीने उपर्युक्त विचार, गुजरातकी एक पिछड़ी जाति 'पाटणवाडियों' में हो रहे सेवा-कार्योंकी मोहनलाल पण्डया द्वारा प्रेषित रिपोर्ट पढ़नेके बाद, व्यक्त किये थे।
  2. गांधीजीने यह पत्र ए॰ ए॰ पॉलके ४-५-१९२६ के पत्रके उत्तर में लिखा था। उस पत्रमें पॉलने लिखा था कि "...चीनके श्री टी॰ जेड॰ कूका उत्तर मुझे मिल गया है। उसमें उन्होंने आपके दौरेके हेतु, कार्यक्रम, तिथियों और व्याप्तिके बारेमें लिखा है और इसके लिए वे बड़े उत्सुक हैं।"