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५०१. पत्र: जयसुखलालको

साबरमती आश्रम
शनिवार, चैत्र बदी ११, ८ मई, १९२६

चि॰ जयसुखलाल,

तुम्हारे एक प्रश्नका उत्तर देना रह गया है। गरीब कतैयोंकी मदद करनेके लिए पैसा खर्च करनेके बारेमें तुमने मुझे लिखा था। वहाँ तुम सौ रुपये तककी रकम खर्च कर सकते हो। वह कैसे खर्च की जाती है उसके बारेमें लिखना और इस सीमाके भीतर जो पैसे खर्च हों वे आश्रमसे मँगा लेना।

भाई लक्ष्मीदासने सूतकी मजबूतीकी जो जाँच की है उसके परिणाम साथ भेज रहा हूँ। इससे तुम देखोगे कि सूतकी मजबूती बढ़ानेकी ओर खूब ध्यान देनेकी जरूरत है। भाई लक्ष्मीदासकी गणनानुसार मजबूती ५० प्रतिशतसे कम नहीं होनी चाहिए। यदि सूत आठ दिनतक रखा रहा हो तो थोड़ा गीला करके क्यों नहीं दिया जा सकता? गीला सूत आजकलकी हवामें तो तीन घंटेमें बिलकुल सूख जाता है।

अमरेली

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५३८) की माइक्रोफिल्मसे।

५०२. पत्र: काका कालेलकरको

साबरमती आश्रम
शनिवार, ८ मई, १९२६

भाई काका,

तुम्हें पुस्तक लिख भेजना तो अभी मुल्तवी ही रखना होगा क्योंकि लिखनेके बहाने यदि तुम्हें पत्र न लिखूँ तो पत्र और पुस्तक दोनोंके रह जानेकी आशंका है। मैंने सोचा था कि पत्र लिख सकनेके लालचमें मैं पुस्तक जल्दी लिखूँगा। लेकिन कांग्रेस कमेटीने तो मेरे पूरे तीन दिन ले लिये, जिससे कामका गिरनार हिमालय-जैसा बन गया है। उसपर भी आज आई डाकसे मैं देखता हूँ कि मुझे महाबलेश्वर जाना ही होगा। होना तो कुछ नहीं है लेकिन जानेमें ही शिष्टता है, फिर उसका जो भी परिणाम हो।

डॉ॰ तलवलकरके प्रति आश्रमवासी उदासीन रहे हैं, ऐसा मुझे नहीं लगा। किन्तु मेरी उदासीनता—यदि उसे उदासीनता कहा जाये तो— आश्रमवासियोंमें भले ही प्रतिबिम्बित हुई हो।