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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  कर रहा हूँ और न किसीका विरोध। पक्षपात तो मात्र खादीका है। अमरेली कार्यालयकी मैंने खुद जाँच की और दूसरोंसे करवाई तथा मुझे लगा कि इसे बन्द नहीं किया जा सकता। बढ़वान कार्यालय-का मैंने अध्ययन नहीं किया था और आपकी कार्यदक्षतापर विश्वास होनेके कारण तथा देवचन्द भाईसे हमेशा उसकी स्थितिकी जानकारी मिलती ही रहती थी, इस कारण, मुझे उसकी व्यवस्थाकी जाँच करनेकी आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई। जब खादी बेचनेका प्रश्न उठा तभी मेरी नजर बढ़वान खादी कार्यालयकी ओर गई तथा उसके कार्यकी जाँच करते हुए जब तुमसे उसका हिसाब सुना तब मैं चौंका। कातने, बुनने और पींजनेके बढ़वानमें ज्यादा दाम दिये जाते हैं अथवा नहीं, इस सवालका जवाब हाँमें हो तो क्या इस कार्यालयको चालू रखना बुद्धिमानी है? खादीकी प्रत्येक प्रवृत्तिके बारेमें मैं तो एकसूत्रका विचार करता हूँ। क्या कातनेवाली स्त्रियाँ बिना धन्धेके भूखों मरती हैं? यदि ऐसा हो और यदि हमारे सौभाग्यसे वे कातनेको तैयार हो जायें तब हमें खादी-प्रवृत्ति शुरू करनी चाहिए। इस सूत्रको ध्यानमें रखकर काठियावाड़में जितने कार्यालय चलाये जाने चाहिए उन्हें चलानेके लिए यदि स्वयंसेवक आवश्यक संख्यामें मिल जायें तो मैं अवश्य प्रयत्न करूँ। अब आपको जो लिखना हो सो लिखना और मुझे अपनी बात समझाना। अपनी पक्षपातहीन वृत्तिके लिए मैं अपने साथी कार्यकर्त्ताओंके प्रमाणपत्रोंका भूखा हूँ। ऐसे साथियोंमें से मैंने एक आपको भी माना है। इसीलिए आपको समझानेके अपने प्रयत्नोंमें मैं थकनेवाला नहीं हूँ।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५३४) की फोटो-नकलसे।

४९५. पत्र: रामदत्त चोपड़ाको

साबरमती आश्रम
८ मई, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मैं नहीं समझता कि चेचकका टीका गायोंको मारकर बनाया जाता है। पर मैं समझता हूँ कि इसे बनानेमें उन्हें कष्ट देना जरूरी होता है।

आश्रमके नियम[१] श्री नटेसनके प्रकाशनमें परिशिष्टके रूपमें दिये गये हैं। सारी प्रतियाँ वितरित की जा चुकी हैं। नया संस्करण निकालनेका विचार किया जा रहा है, पर उसके प्रकाशनमें कुछ समय लगेगा।

मुझे खेद है कि मैं आपकी पुत्रीका जिम्मा नहीं ले सकूँगा, क्योंकि माता-पिताके बिना रहनेवाली लड़कियोंके लिए मेरे पास कोई प्रबन्ध नहीं है। और आपके लड़केकी उम्र तो इतनी कम है कि उसे किसी तरह दाखिल किया ही नहीं जा सकता।

  1. देखिए खण्ड १३, पृ४ ९५-१०१।