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४९३. पत्र: मदनमोहन शर्माको

साबरमती आश्रम
शुक्रवार, ७ मई, १९२६

महोदय,

आपका पत्र मिला। तिलक फंडमें प्रायः एक कोटि रुपये इकट्ठे हुए थे। उसका हिसाब सब अखबारोंमें छप चुका है। उसकी किताब भी प्रकट हो चुकी है। महासभाके दफ्तरमें वह रिपोर्ट मिल सकता है। उस पैसेका अधिकांश हिस्सा खर्च हो गया है। और सब राष्ट्रीय विद्यालयोंमें, अस्पृश्यता निवारणमें और खादी प्रचारमें प्रायः खर्चा गया है।

(२) मेरा अभिप्राय है कि जो नेताका शरीर बरदाश्त कर सकता है इसको हरगीज दूसरे या पहले वर्गमें मुसाफरी न करनी चाहिए।

(३) हिंदुमुस्लीम एकताको मैं अवश्य संभवित मानता हूँ। क्योंकि एकता मनुष्य-जातिका स्वभाव है। उसका उपाय यदि हिंदु या मुसलमान एक भी नहीं करेंगे तो भी काल तो कर ही रहा है। (४) जिनकी आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं है वे और भी सादगीको अख्त्यार करके कम खद्दरसे अपना गुजारा करे, और इसी तरह रखे। आजकी परिस्थितिमें असहयोगी अपना धर्मका कष्ट उठाकर भी पालन करे।

मूल प्रति (एस॰ एन॰ १०८९९) की फोटो-नकलसे।

४९४. पत्र: फूलचन्दको

साबरमती आश्रम
शुक्रवार, ७ मई, १९२६

भाईश्री ५ फूलचन्द,

आपका पत्र मिला। भाई शिवलालको बवासीर हो और वे किसीसे उसकी बात तक न करें, इसे मैं गुण नहीं मानता। उसे दोष मानता हूँ। अब उनके सेवा कार्यमें विघ्न पड़ गया। कितने दिनतक शय्यावश रहेंगे, सो भी नहीं कहा जा सकता। इसपर पैसेका जो व्यय होगा सो अलग। लेकिन शिवलालको कौन समझा सकता है? अब तुरन्त जो उपाय उचित जान पड़े सो कर लें।

बढ़वान उद्योगालयके सम्बन्धमें आपका कहना मैं समझ गया हूँ। आपके पत्रसे मुझे कुछ ऐसी ध्वनि निकलती दिखाई देती है कि बढ़वानके बारेमें मैंने जो राय बनाई है उसमें अन्याय है और अमरेली कार्यालयका मैं जो पोषण कर रहा हूँ उसमें पक्षपात है। आपको मैं किस तरहसे समझाऊँ कि मैं न तो किसीके साथ पक्षपात

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