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पत्र: राधाकृष्ण बजाजको

लोग अपवाद हैं और अपवाद तो नियमको ही सिद्ध करते हैं। आपको इन अपवादोंको आधार बनाकर कोई काम नहीं करना चाहिए।

यह भी अजीब बात है कि हम अपने आपको किस तरह भ्रममें डालते हैं। हम सोचते हैं कि हम अपने नश्वर शरीरको दुर्भेद्य बना सकते हैं, और आत्माकी छिपी हुई शक्तिको जाग्रत कर पाना हम असम्भव मानते हैं। अगर मुझमें इनमें से कोई शक्ति हो भी तो में यही दिखानेकी कोशिश कर रहा हूँ कि मैं भी दूसरोंकी ही तरह एक दुर्बल मर्त्य प्राणी हूँ और मुझमें न पहले कभी कोई असाधारण शक्ति थी और न आज है। मैं अपने-आपको एक साधारण व्यक्ति मानता हूँ, जिससे दूसरे मर्त्य-जनों की ही तरह गलतियाँ हो सकती हैं। लेकिन, साथ ही मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मुझमें इतनी विनय अवश्य है कि मैं अपनी गलतियाँ स्वीकार करके अपने कदम वापस ले सकता हूँ। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि ईश्वर और उसकी नेकीमें मेरा अडिग विश्वास है और सत्य तथा अहिंसाके लिए मुझमें अक्षय उत्साह है। लेकिन, क्या ये तमाम चीजें हर मानव-प्राणीके अन्दर छिपी हुई नहीं हैं? अगर हमें आगे बढ़ना है तो हमें इतिहासकी पुनरावृत्ति नहीं करनी चाहिए, बल्कि नये इतिहासका निर्माण करना चाहिए। हमें अपनी पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई विरासतको और भी समृद्ध करना चाहिए। अगर हम भौतिक जगतमें नये-नये आविष्कार और नई-नई खोजें कर सकते हैं तो क्या आध्यात्मिक जगतमें अपनी असमर्थताकी घोषणा करना ठीक है? क्या उक्त अपवादोंकी संख्या बढ़ाकर उन्हें आम बना देना असम्भव है? क्या यह जरूरी है कि इन्सान बननेसे पहले आदमी पशु बने ही और तब, यदि बन सके तो इन्सान बने?

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ६-५-१९२६

४९१. पत्र: राधाकृष्ण बजाजको

साबरमती आश्रम
बृहस्पतिवार, ६ मई, १९२६

चि॰ राधाकृष्ण,

तुमने मुझे और शंकररावको जो पत्र लिखे हैं मैंने उन दोनोंको पढ़ा। अलोना भोजन लेनेका नियम सारे जीवनके लिए नहीं होता। इसका हेतु तो रसको कम करना है। इस मुख्य बातको ध्यानमें रख जब दूसरे घर जानेका अवसर आये उस समय जो सादेसे -सादा भोजन वहाँ मिले उसे ले लेना चाहिए। जो वस्तु मिश्र अथवा अमिश्र रूपसे खानेके लायक ही न हो वह वस्तु यदि भोजनमें हो तो उसका त्याग ही करना चाहिए। लेकिन, दूध, चावल और रोटी—ये तीन सब जगह मिलते हैं। मिर्च, मसाले जिसमें हों वैसी सब्जी या दालका त्याग करें। हाथसे पिसा हुआ