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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शक्ति बढ़ानेका प्रयास करें। इसमें सफलताकी पूरी सम्भावना है। कारण, प्रेम-बल बढ़ानेमें प्रतिद्वन्द्विता करनेका परिणाम शुभ होता है। दुनिया आजतक शरीर-बल अर्जित करके ही शक्तिशाली बनने की कोशिश करती रही है, मगर वह बुरी तरह विफल हुई है। शरीर-बल अर्जित करनेमें एक-दूसरेसे प्रतिद्वन्द्विता करनेका मतलब समग्र जातिके विनाशका प्रयत्न करना है।

पत्र-लेखक आगे लिखते हैं:

ऐसा प्रतीत होता है कि अंग्रेज शासकोंमें उतना ही आत्म-बल है जितना कि आपमें। लेकिन उनके पास इसके अतिरिक्त सैनिक शक्ति और मानव-स्वभावका व्यावहारिक ज्ञान भी है। परिणाम तो स्पष्ट ही है।

सैनिक शक्ति आत्माकी शक्तिसे बिलकुल असंगत चीज है। भयंकर कृत्य करना, कमजोरोंका शोषण करना, अनैतिक ढंगसे लाभ कमाना, दैहिक सुखकी प्राप्तिके लिए निरन्तर पागल बने रहना, इस सबका आत्म-बलसे कोई मेल नहीं बैठता। इसलिए अंग्रेज शासकोंमें जो आत्म-बल है, वह बिलकुल सुप्तावस्थामें भले न हो, पर उनके शरीर-बलके सामने गौण तो है ही।

इसके बाद पत्र-लेखक भाई यह चिरन्तन समस्या सामने रखते हैं:

दुनियामें कुछ लालची लोग हैं, जो शरारत कर रहे हैं। उनके हाथमें शक्ति है। वे पागल भले ही हों, लेकिन दुनियाका नुकसान तो कर ही रहे हैं। इस हालतमें हाथपर-हाथ रख बैठे रहने और उन्हें शैतानी करते जानेको छोड़ देनेसे हमारा काम नहीं चल सकता। हमें अहिंसाके सिद्धान्तकी बलि चढ़ाकर भी उनके हाथसे शक्ति छीन लेनी चाहिए, ताकि वे आगे और नुकसान न कर पायें।

इतिहास तो हमें यह बताता है कि जिन लोगोंने, बेशक सदुद्देश्योंसे प्रेरित होकर, शरीर-बलका प्रयोग करके इन लालची लोगोंको अपदस्थ किया है, बादमें वे खुद ही उसी बुराईके शिकार हो गये हैं, जो उन विजित लोगोंमें थी। "गुलामोंका मालिक बननेके बजाय गुलाम बनना बेहतर है", अगर यह सिद्धान्त-वाक्य सिर्फ बच्चोंके रटनेके लिए ही नहीं है तो ज्यादा अच्छा होगा कि हम, जो मानव-स्वभावके लिए सर्वथा अशोभनीय इस पाशविक संघर्षसे ऊब गये हैं, गुलामोंके मालिकोंको तबतक अपने मन की करने दें जबतक कि हम लालची शोषकों तथा ऐसे ही दूसरे लोगोंके पशु-बलके मुकाबले आत्म-बलको खड़ा करनेकी सम्भावनाओंको ढूँढनेमें लगे हुए हैं।

लेकिन, इस प्रयोगके प्रारम्भमें ही पत्र-लेखकके सामने निम्नलिखित समस्या उपस्थित हो जाती है:

महात्माजी, आप यह तो स्वीकार करते हैं कि भारतकी जनताने आपके धर्मका अनुसरण नहीं किया है। लगता है, आप इसका कारण नहीं समझते हैं। सचाई यह है कि औसत आदमी महात्मा नहीं होता। इतिहास इस तथ्यकी अचूक साक्षी भरता है। भारतमें और अन्यत्र भी कुछ महात्मा हुए हैं। ये