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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  ध्यान नहीं देंगे। इस समय तो उसकी आवाज अरण्य-रोदन ही होगी। लेकिन, मैं समझता हूँ कि अगर भारतका पक्ष वहाँ प्रस्तुत नहीं होता तो यूरोपके भाड़ेपर और कभी-कभी तो घूस खाकर काम करनेवाले पत्रकार भी ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रचारित तमाम प्रकट और एकतरफा अतिशयोक्तियों और झूठी बातोंको शास्त्र-वचनकी तरह सत्य मान लेनेमें हिचकेंगे। मुझे यह भी लगता है कि इस अहिंसात्मक लड़ाईको वैसे प्रचारकी आवश्यकता नहीं है जैसे प्रचारकी हिंसात्मक लड़ाईको होती है। फिर, तीसरी बात यह है कि जिसकी बात लोग सुन सकें ऐसा आदमी मिलनेमें होनेवाली जिस व्यावहारिक कठिनाईका आपने उल्लेख किया है, वह कठिनाई भी है ही। कविवरकी[१] सेवाएँ तो प्राप्त हो नहीं सकतीं, इसलिए इस समय मेरी नजरमें तो इस कामके लायक सिर्फ एन्ड्रयूज ही हैं। जिन लोगोंका कुछ महत्त्व है, वे उनकी बात सुनेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

आशा है, आप स्वस्थ होंगे और ईश्वर आपको उस दिनतक डटे रहनेमें मदद करेगा जब भारतमें यह संघर्ष लगभग समाप्त हो जायेगा।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
ग्लीनिंग्ज

४८३. पत्र: एक मित्रको

साबरमती आश्रम
३ मई, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र काफी दिन पहले आ गया था। परन्तु मैं इसे इससे पहले नहीं देख पाया।

आपके गत मासकी २९ तारीखके पत्रसे मुझे लगा कि अब मुझे आपके पत्रका उत्तर शीघ्र देना चाहिए। मुझे लगता है कि आश्रमका जीवन आपको रास नहीं आयेगा। यहाँके जीवनका मतलब कठोर श्रम है। आश्रमवासियोंको टट्टीकी बाल्टियाँ साफ करनेसे शुरू करके खेती-बाड़ी, खाना बनाना वगैरह तमाम काम करने पड़ते हैं। पढ़ने-लिखनेके लिए समय नहीं बच पाता। आपके जीवनके बारेमें मैं जो-कुछ समझ सका हूँ, उससे मुझे लगता है कि आश्रमके जीवन और वातावरणमें आप खप नहीं सकेंगे। इसलिए मेरा सुझाव है कि यदि आप अब भी आश्रममें आने और रहनेके इच्छुक हैं तो एक बार प्रारम्भिक तौरपर स्वयं यहाँ आकर सब बातोंको देख लें, और फिर फैसला करें।

  1. रवीन्द्रनाथ ठाकुर।