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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ज्ञान होनेकी आवश्यकता है। मजबूतीकी जाँच करना ठीक-ठीक आ जाये तो खादी सस्ती हो जाये अर्थात् मजदूरीकी दर इतनी ही रखनेपर भी खादीकी किस्म और भाव सुधर जायें। बड़े कारखानोंमें भाव उतना रखते हुए भी कार्य-कुशलताके द्वारा लाभ बढ़ाया जा सकता है। हमारे असंख्य कताई कारखानोंमें——क्योंकि प्रत्येक झोंपड़ी कताई कारखाना है——कार्यकर्ता कार्यकुशलतासे अपनी आय बढ़ायें और जनताका बोझ कम करें। इन बड़े कारखानोंमें अनेक प्रकारके दावपेचों और विनिमय दरोंमें होनेवाले फेरफारसे करोड़ों रुपयोंका उलट-फेर होता है और मजदूरोंका शोषण होता है। हमारे इन कारखानोंमें कार्यकुशलतासे ऐसा उलट-फेर होनेके बजाय समभाव पैदा होता है और कार्यकुशलता बढ़नेके साथ-साथ कार्यकर्त्ताओंकी उन्नति होती जाती है। यह सुन्दर परिणाम खादी सेवकोंकी त्याग-बुद्धि, कुशलता, धैर्य, नम्रता और उत्साहपर निर्भर है।

मेरी टीका अथवा भाई लक्ष्मीदासके विवरणका कोई यह अर्थ न करे कि अबतक जो कार्य हुआ है वह व्यर्थ गया है अथवा ठीक नहीं हुआ है। दोनोंका भावार्थ इतना ही है, अब हम इतने व्यवस्थित हो गये हैं कि हम एक कदम आगे बढ़ सकते हैं। जैसे-जैसे हमें अनुभव होता जाये वैसे-वैसे हम सुधार करें, यह हमारा कर्त्तव्य है। यदि तुलना करें तो खादीकी उन्नति अच्छी ही हुई है। ग्राहक वर्गको तो इतना ही देखना है कि:

१. खादी सेवक प्रामाणिक और मेहनती हैं?

२. खादीके पैसे गरीबोंको मिलते हैं?

३. कातनेवाली बहनोंको काफी मदद मिलती है?

४. उन बहनोंको कताईका काम न मिले तो क्या उनके पोषणमें कमी रहती है? और

५. उन्हें अधिक पैसे देनेवाला धन्धा और कोई नहीं है, यह बात ठीक है? यदि इन प्रश्नोंका उत्तर "हाँ" में मिले तो खादीके महँगे अथवा सस्ते होनेका विचार किये बिना काठियावाड़ियोंको काठियावाड़की खादी ही खरीदनी चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २-५-१९२६