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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  तो उसमें भी मेरा ही लाभ है। मैं अपने विचार उनके सम्मुख प्रस्तुत कर सकूँगा, मेरे दृष्टिकोणमें कोई भूल हुई तो उसे समझकर सुधार सकूँगा और उनके खेती सम्बन्धी विचारोंको जान सकूँगा। मैं स्वयं असहयोगी हूँ। गवर्नर महोदय जानते हैं कि मेरा आयोगोंमें विश्वास नहीं है और में आयोग मैं कोई भाग नहीं ले सकता। यह बात सभी जानते हैं। इसलिए यदि मुझे गवर्नर महोदयसे मिलना पड़े तो इसमें डरनेकी कोई बात नहीं है।

गो-सेवकोंसे

लेकिन जैसे मेरे गवर्नर महोदयसे मिलनेसे डरनेवाले लोग हैं वैसे ही उस अवसरसे लाभ उठानेका लालच रखनेवाले लोग भी हूँ। मेरे पास एक पत्र और एक तार आया है। उनके प्रेषकोंकी यह माँग है कि मैं गवर्नरसे ढोरोंके विदेश भेजे जाने तथा कत्ल किये जानेसे खेतीका जो नुकसान होता है उसके बारेमें बातचीत करूँ। मैं इन गो-सेवकोंसे नम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि अगर मुझे गवर्नर महोदयसे इस तरहकी बातचीत करनेका अवसर मिला भी तो मैं जिस ढंगसे वे चाहते हैं उस ढंगसे कदापि बातचीत नहीं करूँगा? मैं गो-सेवकोंमें एक महान् दोष यह पाता हूँ कि वे इस प्रश्नको धीरजसे और शास्त्रीय पद्धतिसे समझानेका प्रयत्न नहीं करते। हिन्दुस्तानमें ढोरोंका नाश क्यों और कैसे हो रहा है इसके बारेमें आजकल वालजी देसाई सूक्ष्मतासे अध्ययन कर रहे हैं। उनके लेख 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' में नियमित रूपसे प्रकाशित होते हैं। इनको पढ़नेसे भी गोवंशकी दयनीय स्थितिके कारणोंका पता चल जायेगा। हालाँकि मैं मानता हूँ कि इस सम्बन्धमें सरकार बहुत-कुछ कर सकती है, फिर भी अभी तो जनताको ही इस सम्बन्धमें बहुत-कुछ करना है और जबतक जनता इस सम्बन्धमें जाग्रत नहीं होती और शिक्षा प्राप्त नहीं करती तबतक सरकार चाहे जैसे कानून बनाये, फिर भी गोवंशकी रक्षा नहीं कर सकती। इसमें अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्रके महान् प्रश्न आते हैं। हमारी स्थिति ऐसी दयनीय है कि गोवंशकी रक्षाके सम्बन्धमें अर्थशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र क्या कहते हैं, हम इसका विचार ही नहीं करते, मानो हमारे पास इसके लिए समय ही न हो। हम धर्मान्धताके कारण अपनी धार्मिक दृष्टिसे विचारकी क्षमताको खो बैठे हैं और आलस्यके कारण अर्थशास्त्रके अध्ययनमें हमें अरुचि हो गई है। गो-माताके नाम मात्रसे गो-माताकी या भारत-माताकी सेवा नहीं होगी। उसका रहस्य समझकर उचित उपाय करनेसे ही गो-माताकी और उसके वंशकी सेवा तथा रक्षा हो सकती है और उसके साथ ही हमारी अपनी सेवा भी हो सकती है। मैं अपने पत्र-प्रेषकोंको सुझाव देता हूँ कि वे इस पत्रमें प्रकाशित तत्सम्बन्धी लेखोंपर विचार करें। उनमें विचार-दोष अथवा तथ्यदोष हों तो बतायें और न हों तो उनके अनुरूप आचरण करें।

सूरतका विनय-मन्दिर

एक भाईने मुझे सूरतके राष्ट्रीय विनय-मन्दिरके[१] बारेमें कुछ शिकायतें भेजी हैं। मेरे पास ये शिकायतें लिख भेजनेका उनका कारण यह है कि उन्होंने ऐसी

  1. राष्ट्रीय प्राथमिक पाठशाला।