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४७९. टिप्पणियाँ

दूधका जला छाछको भी फूँक-फूँककर पीता है

अधिकारी वर्गकी ओरसे जनताको इतने अधिक कड़वे अनुभव हुए हैं कि यदि वह किसी भी ऐसे व्यक्तिको जो अबतक स्वतन्त्र रहा हो, उनके पास जाता देखती है तो डर जाती है अथवा सन्देह करने लगती है। खेतीके बारेमें जो आयोग नियुक्त किया गया है उसके सम्बन्धमें बातचीत करनेके लिए बम्बईके गवर्नर मुझे बुलानेवाले हैं, यह बात समाचारपत्रोंमें जबसे प्रकाशित हुई है मेरे पास तभीसे चेतावनीके और अन्य-अन्य प्रकारके पत्र आ रहे हैं। एक भाई लिखते हैं, 'आप गवर्नरके पास जाकर क्या करेंगे? सावधान रहें, गवर्नर आपको चक्करमें डाल देंगे, फाँस लेंगे और धोखा देंगे।' लेकिन यदि हम स्वराज्य लेनेकी आशा रखते हों तो इस तरह डरने अथवा शंका करनेसे हमारा कार्य सुधरेगा नहीं। हम अधिकारियोंसे कोई रियायत न लें, उनका कोई एहसान न लें और उनकी नौकरी करना स्वीकार न करें, यह बिलकुल समझमें आने योग्य बात है। यह असहयोग है। लेकिन हम अधिकारियोंसे मिलने से भी डरें, यह उचित नहीं माना जा सकता; इतना ही नहीं, बल्कि उपयुक्त अवसरपर उनसे न मिलना अनुचित माना जायेगा। जो अपना कर्त्तव्य समझता है वह किसीसे क्यों डरे? अथवा जिसे किसी प्रकारका भी लालच न हो अर्थात् जिसकी असहयोगमें अटूट श्रद्धा हो उसके लिए डरनेका क्या कारण है? और जो व्यक्ति अपना काम शान्तिके रास्तेपर चलकर करना चाहता है उसे तो सीधे और उचित ढंगसे मिलनेवाले ऐसे एक भी अवसरको हाथसे न जाने देना चाहिए। मेरा असहयोग व्यक्तियोंसे नहीं, उनके कार्योसे होता है। शान्तिका रास्ता यानी प्रेमका रास्ता; और यदि मुझे प्रेमके रास्ते चलना हो तो मैं जब-जब अवसर मिलेगा तब-तब विरोधीसे भी अवश्य मिलूँगा, क्योंकि मेरा धर्म ही उसके व्यवहारको बदलना है और वह भी जोर-जबरदस्तीसे नहीं, अपितु समझा-बुझाकर उससे अनुनय-विनय करके अथवा स्वयं कष्ट सहनकर अर्थात् सत्याग्रह करके। इसलिए यदि माननीय गवर्नर मुझे बुलाते हैं तो मैं उनसे मिलना अपना धर्म समझता हूँ और चूँकि मैं अपने सिद्धान्तको अच्छी तरह जानता हूँ और मुझे अपने धर्मका पूरा-पूरा भान है, इसलिए मेरे लिए किसी प्रकारके प्रलोभनमें अथवा जालमें फँस जानेका कोई डर नहीं है।

जब मैं लॉर्ड रीडिंगसे मिलने गया था तब भी कुछ मित्रोंने ऐसा ही भय प्रकट किया था, जैसा इस पत्रके लिखनेवाले भाईने प्रकट किया है। लेकिन मेरी मान्यता है कि मैं लॉर्ड रीडिंगसे मिला, वह मैंने उचित ही किया था और उससे जनताकी कोई हानि नहीं हुई थी। मुझे तो इससे लाभ ही हुआ, क्योंकि मैं उन्हें अच्छी तरहसे समझ सका और अब मैं कह सकता हूँ कि समझौता करनेका एक भी सच्चा अवसर मुझे जब भी मिला है तो मैंने उसे अभिमान-वश अथवा दुर्बलता-वश अपने हाथसे जाने नहीं दिया है। यदि मैं इस समय भी माननीय गवर्नरसे मिलूँगा