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४६९. पत्र: सतीशचन्द्र दासगुप्तको

साबरमती आश्रम
प्रिय सतीश बाबू,

१ मई, १९२६

छोटालालजी आपके पास आ रहे हैं। बहुत ज्यादा कामके कारण उनकी मानसिक स्थिति बहुत तनावपूर्ण रहती है और उन्होंने अपने भोजनको अधिकसे-अधिक सादा और सस्ता बनानेके सम्बन्धमें कड़े प्रयोग किये हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि उनका स्वास्थ्य बहुत ही खराब हो गया है। वे आपसे बहुत स्नेह करते हैं। वे आपकी संस्थाके कार्यका अध्ययन करना चाहते हैं और वहाँ कोई ऐसा हलका काम करना चाहते हैं, जिसे लगभग मनोरंजन ही कहा जा सकता है। उनका ऐसा खयाल है कि यदि वे आशुलिपि और टाइप करना सीख लें तो मेरी निजी सेवाके लिए अधिक उपयोगी होंगे। मैंने उनसे कह दिया है कि मैं ऐसा नहीं सोचता, विशेषकर इसलिए कि अभी सुब्बैया मेरे पास है। यह जानते हुए कि वे खादी-सम्बन्धी बहुत-से कार्योके विशेषज्ञ हैं, मैं उनका उपयोग आशुलिपिक और टाइपिस्टके रूपमें करनेकी नहीं सोच सकता। पर वे क्या करें, क्या नहीं, इसके लिए वे बिलकुल स्वतन्त्र हैं। आशुलिपि सीखना कोई पाप नहीं है। इसलिए यदि वे आशुलिपि और टाइप सीखना ही चाहते हैं तो अवश्य सीखेंगे।

इसलिए, उन्हें अपने दो-तीन महीने वहाँ कैसे बिताने चाहिए, इस विषयपर आप उनसे खुलकर बात कर लेंगे और जो जरूरी हो सो करेंगे। आप जानते हैं कि वे गुमसुम रहनेवाले व्यक्ति हैं। इसलिए आपको ऐसा प्रयत्न करना पड़ेगा कि वे खुलकर बात करें, तथा प्रसन्न रहें। उनको प्रसन्नचित्त करनेकी कोशिशसे आपपर भी अनुकूल प्रतिक्रिया होगी और यह बात मुझे बहुत अच्छी लगेगी।

कलकत्ताके इन भीषण दंगोंके सम्बन्धमें अपने विचार मुझे लिखें।

आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९५२१) की माइक्रोफिल्मसे।