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पत्र: हासम हीरजीको

कारण हम उसकी व्याख्या नहीं बदलते। आदर्श रेखाको ध्यानमें रखकर हम सीधी रेखा खींचें तो वह हमारा काम चला देती है। लेकिन यदि हम उसकी व्याख्याको बदल दें तो हम पतवारविहीन नौकाके समान हो जायें। धातुके रूपमें तो पैसेमें कोई पाप नहीं है। जो-कुछ है सो उसके उपयोगमें है। इतना याद रखकर हम शुद्ध हृदयसे जितनी दूरतक अपरिग्रहकी स्थितिको प्राप्त कर सकते हों, करें। आपने जिन उदाहरणोंकी कल्पना की है, आइये अब तनिक उनपर विचार करें। धनिक लोग विचारपूर्वक धनका त्याग करें तो उससे जगतकी तनिक भी हानि नहीं होगी। अपितु लाभ ही होगा। कारण, शुद्ध हृदयसे किये गये अपरिग्रहसे नवीन और ज्यादा शक्ति प्राप्त होती है। ये चीजें कोई यन्त्रवत् नहीं कर सकता। जिसके हृदयमें ये स्वयं प्रस्फुटित होती हैं, वहीं उन्हें करता है और उसीको ये शोभा देती हैं। समस्त संसारके अपरिग्रही बननेकी न तो सम्भावना है और न आशंका है। लेकिन मान लो कि ऐसा हो सकता है तो इस बारेमें मुझे तनिक भी शंका नहीं है कि उस स्थितिमें संसार अपना निर्वाह सुखपूर्वक करेगा। दुनियामें ऐसे लोग हैं जो एक दिनके लिए भी संग्रह नहीं करते; आप ऐसा मान लीजियेगा कि यदि इस जगतमें संग्रह करनेवाले व्यक्ति नहीं होंगे तो ऐसे परिग्रही मर जायेंगे।

जैसे सरकारी कानूनके अनुसार अनजानमें किया हुआ अपराध अपराध ही रहता है, वैसा ही दिव्य कानूनके बारेमें भी है। नशेकी धुनमें किया गया व्यभिचार भी व्यभिचार ही है। "माफी माँगना" और "माफी मिलना" ये दोनों सुन्दर वाक्य हैं। मैं इन दोनों का उपयोग करता हूँ लेकिन माफीका सामान्यतः जो अर्थ कर लिया जाता है वह यहाँ नहीं है, ऐसा मैं हमेशा मानता आया हूँ। माफी माँगनेकी हार्दिक स्थितिमें हममें नम्रता बढ़ती है। हम अपने दोष देख सकते हैं और उसमें से अच्छे बननेका बल प्राप्त करते हैं। अल्लाहके लिए हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयों आदिने अनगिनत विशेषणोंकी रचना की है लेकिन ये सब हमारी कल्पनाकी उपज हैं। ईश्वर विशेषण रहित है, गुणातीत है। लेकिन यह मैं आदर्शकी दृष्टिसे कह रहा हूँ। तथापि यदि इस आदर्शको हम न पहचानें और ईश्वरको हमने जिन विशेषणोंसे अलंकृत किया है, उन विशेषणोंको सर्वथा सत्य मान लें तो वह भी हमारे समान भूलोंका पुतला बन जाये। इसीलिए इसे निरंजन, निराकार, समझकर हम अपनी इच्छानुसार उसमें विशेषणों का आरोपण करनेका अधिकार प्राप्त करते हैं, क्योंकि उसने हमें यही भाषा दी है। बाकी कर्मोका फल तो हमें भोगना ही होगा। यह उसका अनिवार्य विधान है और इसीमें कृपा निहित है। यदि वह मनुष्यकी भाँति पक्षपात करे अथवा भूल मालूम पड़नेपर भूल सुधारनेके लिए अपने कानून और हुकममें रद्दोबदल करता रहे तो यह जगत एक क्षणके लिए भी नहीं टिक सकता। ईश्वर-तत्त्व एक गूढ़, अवर्णनीय और अनोखी शक्ति है। वहाँतक हमारे विचार भी नहीं पहुँच सकते तब बेचारी वाणी क्या करे?

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १०९०२) की फोटो-नकलसे।