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४६१. पत्र: नागरदास लल्लूभाईको

साबरमती आश्रम
३० अप्रैल, १९२६

भाईश्री ५ नागरदास,

आपका पत्र मुझे मिला था। काठियावाड़ और गारियाधारमें मजदूरी जिस दरसे दी जाती है बढ़वानमें उसकी दर कहीं अधिक है इसलिए खादी महँगी पड़ती है। आपने जो वर्णन किया है और फूलचन्दके साथ मेरी जो बातचीत हुई है उससे मैं देखता हूँ कि जो स्त्रियाँ चरखा कातती हैं वे भूखों नहीं मरतीं अथवा बेरोजगार नहीं हैं। वे कदाचित् देशहित समझकर और हमारे अनुरोधके कारण कातती हैं। चरखेकी कल्पना ऐसी स्त्रियोंके लिए नहीं है; उसके पीछे तो यह मान्यता है कि हिन्दुस्तानमें करोड़ों स्त्री-पुरुष अधपेट खाकर रहते हैं और यद्यपि उनका शरीर अच्छी तरह काम करने योग्य है फिर भी उन्हें कोई काम नहीं मिलता। चरखा आन्दोलन- का केन्द्रबिन्दु ऐसे लोगोंसे कतवाकर और उनके काते हुए सूतकी खादी बनाकर बेचना ही है। बढ़वानकी खादी इस कल्पनाकी पोषक नहीं है, ऐसा मुझे लगा है; और यदि ऐसा हो तो हमें बढ़वानका कार्य समेट लेना चाहिए। यदि ऐसा करना पड़ा तो जो खादी पड़ी है उसकी निकासी की जा सकती है। यदि दिन-भरके बाद साँझको दो पैसा लेकर कातनेवाली स्त्रियाँ मिलें, ढाई रुपये लेनेवाले धुनिये मिलें और अन्य स्थानोंपर बुननेके जो पैसे दिये जाते हैं, यदि उस भावसे बुननेवाले मिलें तो हमें इस कामको रखना चाहिए नहीं तो खत्म कर देना चाहिए। इस बारेमें अन्य कार्यकर्त्ताओंके साथ बातचीत करके उनकी राय मुझे बताना।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १०८७९) की माइक्रोफिल्मसे।

४६२. पत्र: हासम हीरजीको

साबरमती आश्रम
शुक्रवार, ३० अप्रैल, १९२६

भाईश्री ५ हासम हीरजी,

आपके पहले पत्रका अभी मैं उत्तर नहीं दे पाया और इस बीच दूसरा आ गया है। पहले मुख्य प्रश्नका उत्तर अवकाश मिलनेपर 'नवजीवन' में दूँगा। दूसरे का यहीं दिये देता हूँ।

अपरिग्रह आदर्श स्थिति है। कहा जा सकता है कि आदर्शको सम्पूर्ण रूपसे नहीं पाया जा सकता। लेकिन इस कारण आदर्शको हम छोटा बना लें, यह तो ठीक नहीं होगा। भूमितिकी आदर्श रेखाको कोई खींच नहीं सका है। किन्तु इस