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४५१. अधिक लोग नहीं, गुणी और दृढ़ लोग चाहिए

मुझसे न जाने कितनी बार यह पूछा गया है कि जब हमारी संख्या ही इतनी कम है तो फिर हम क्या कर सकते हैं? देखिए न, चरखा संघमें कातनेवाले कितने कम लोग हैं? सत्याग्रही कितने कम हैं? पक्के असहयोगी कितने कम हैं? और शराबबन्दी चाहनेवाले भी कितने कम हैं? मुझे अफसोस है कि ये सब बातें बिलकुल सच हैं। परन्तु जब हम इसपर विचार करेंगे तो हमें मालूम होगा कि संख्यामें कुछ नहीं धरा है? अधिक उपयुक्त प्रश्न तो यह होगा कि देशमें सच्चे सत्याग्रही कितने हैं, सच्चे कातनेवाले कितने हैं, सच्चे असहयोगी कितने हैं और सच्चे अर्थोंमें शराबबन्दी चाहनेवाले कितने हैं? अन्तमें तो दृढ़ चरित्र, निश्चय और साहस ही निर्णायक होगा और कितना अच्छा होता कि मैं यह कह सकता कि हमारे पास ४,००० सच्चे कतैये मौजूद हैं। सच्चा कतैया किसे कहा जा सकता है? जो केवल कातता ही है, वह सच्चा कातनेवाला नहीं है। यदि यही होता तो ४,००० कतैये ही नहीं, हमारे पास तो ४,००,००० कतैये मौजूद हैं। कातना ही काफी नहीं है। आवश्यक बात तो यह है कि भारतके दरिद्र लोगोंकी खातिर नियमित रूपसे मजबूत और एकसार सूत काता जाये। इसलिए कताई परिश्रमका काम नहीं, बल्कि आनन्दका विषय होना चाहिए। चरखा संघका सदस्य बन जाना ही काफी नहीं है। दूसरोंको उसका सदस्य बननेके लिए कहना भी जरूरी है। सच्चा कर्तया अपने जीवनमें क्रान्तिकारी परिवर्तन कर लेता है। वह सादगीके धर्मको समझता है, शारीरिक मेहनतकी गरिमाकी कद्र करता है और इस बातको स्वीकार करता है कि भारतको सबसे ज्यादा आवश्यकता स्वावलम्बी बननेकी है और इसके लिए जरूरी है कि करोड़ों लोग सादेसे-सादे औजारोंसे अपने घरमें जिस कामको कर सकते हों, उस कामको करें।

बताया जाता है कि जापानमें जो क्रान्ति हुई, वह हजारों मनुष्योंके कारण नहीं हुई थी परन्तु उसके नेता केवल बारह ही मनुष्य थे, जिन्होंने अपने उदाहरणसे पचपन आदमियोंके मनमें सच्चा उत्साह पैदा कर दिया था और शायद इन बारह मनुष्योंमें भी एक ही ऐसा मनुष्य था जिसने क्रान्तिकी सारी योजना बनाई थी। यदि ठीक आरम्भ कर दिया जाये तो फिर बाकी सब बातें तो बड़ी आसान होती हैं। इसलिए हम इसी निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि कोई भी सुधार आरम्भमें चाहे जितना असम्भव प्रतीत हो, उसे सम्पन्न करनेके लिए एक ही व्यक्ति पर्याप्त होता है। यह बात आश्चर्यजनक तो है ही लेकिन साथ ही बिलकुल सच भी है। चाहे पुरस्कार स्वरूप उस व्यक्तिको उपहास, तिरस्कार और मृत्यु ही मिले और अकसर यही सब मिलता भी है। किन्तु उसकी मृत्यु भले ही हो जाये, उसका आरम्भ किया हुआ वह सुधारका कार्य कायम रहता है और वह आगे बढ़ता रहता है। वह अपने खूनसे उसकी जड़को पक्की बना देता है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि कार्यकर्त्तागण शक्तिकी