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४४५. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

साबरमती आश्रम
चैत्री पूर्णिमा [२७ अप्रैल, १९२६]

भाई घनश्यामदास,

आपका पत्र मिला है। आपने जो चेक भेजा है उसमें से अ॰ भा॰ देशबन्धु स्मारकके पैसेकी जो रसीद जमनालालजीके वहाँसे आई है, आपको देखनेके लिये भेज देता हूँ। चेकपर जो हुडियामण काट लेते हैं वह काटकर रसीद दी जाती है उसका मुझको यह पहला अनुभव है।

हिंदु मुस्लीम झगड़ोंके लिये मैं और क्या लिखूं? मैं भली भांति समझता हूं कि हमारे लिये क्या उचित है, परंतु आज मेरा कहना निरर्थक है वह भी जानता हूं। शहदपर बैठी हुई माखको कौन हटा सकता है? बत्तीके इर्दगीर्द घूमता हुआ परवानाकी गतिको कौन रोकता है?

मसूरी न जानेसेमें बहुत लाभ उठा रहा हूँ। आपका अभिप्राय यहां मिलनेके बाद आपने क्यों दिल्लीसे मसूरी जानेका तार भेजा? परंतु जिसको ईश्वर बचाना चाहता है उसको कौन मिटा सकता है?

फिनलैंडके बारेमें मैं नहीं जानता हूं मैं क्या करना चाहता हूं। जाने न जानेका मेरे नजदीक बहुतसे कारन हैं। और क्योंकि मैं निश्चय नहीं कर सका हूं, इसलिये निमंत्रण देनेवालोंको मैंने मेरी शर्त सुना दी। शर्तके स्वीकारके साथ अगर वे लोग मेरी हाजरी चाहें तो मैं समझुंगा कि मेरा जाना आवश्यक है।

आल इंडिया कांग्रेस कमेटीमें क्या होगा देखा जायगा।

चीनी विद्यार्थीके लिये मैं जुगलकिशोरजीकी संगति चाहता हूं। क्योंकि ऐसी बातोंका शोख उनको ज्यादह है। और उन्होंने जो कहा था उसका स्मरण करके ही मैंने लिखा है। ऐसी बातें जो मेरे सामान्य क्षेत्रके बाहरकी आ जाती है उसमें योग्य मित्रोंकी सहाय मिलती है तब ही कर देता हूं। आपने मेरे कामोंके लिये जो बोज उठा लिया है उसमें मैं अनावश्यक वृद्धि नहीं करना चाहता हूं। जबतक आप भाइयोंका व्यय पृथक २ रहता है तबतक मैं भी पृथक व्यवहार करनेकी चेष्टा करता हूं। इसलिए आप मुझे लिखें जुगलकिशोरजी क्या चाहते हैं।

आपका,
मोहनदास

मूल पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ६१२५ ए) से।

सौजन्य: घनश्यामदास बिड़ला

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