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४४०. पत्र: काका कालेलकरको

सोमवार, २६ अप्रैल, १९२६

भाईश्री काका,

तुम्हारे पत्र मिले हैं। गायके दूधके बारेमें जवाब देना है, लेकिन आज नहीं। नये पंचांगके बारेमें स्वामीसे पूछा तो उन्होंने कहा "मैं नहीं समझता।" मैं तो बिलकुल ही नहीं समझता। इसलिए अब स्वस्थ होनेके बाद तुम्हीं हम लोगोंको समझाना। और उसमें फेरफार करना। लेकिन जबतक हम 'नवजीवन' में इस समस्याकी पूरी-पूरी चर्चा नहीं करते तबतक क्या पंचांगमें फेरफार किया जा सकता है? मैं अभी इसका रहस्य नहीं जानता। भाई हरीहर थोड़े दिनोंमें आनेवाले हैं। उनसे समझने का प्रयत्न करूँगा।[१]...

मेरा मसूरी जाना तो फिर नहीं हुआ। गवर्नर महोदयसे भेंट भी पूना अथवा बम्बईमें होगी और वह भी जूनमें। अभी फिनलैंडकी यात्राकी बात जरूर बहुत जोरसे चल रही है। मेरे पास अन्तिम उत्तर नहीं आया है। मुझे तो अभी ऐसा लगता है कि पोशाककी मेरी शर्त वे स्वीकार नहीं कर सकेंगे। यदि जाना निश्चित ही हुआ तो कमसे-कम तीन महीने तो अवश्य लगेंगे।

विशेष अगले पत्रमें।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९९११) की माइक्रोफिल्मसे।

४४१. पत्र: चन्द्रशंकर पण्ड्याको

आश्रम
सोमवार, २६ अप्रैल, १९२६

भाईश्री ५ चन्द्रशंकर,

आपका पत्र पाकर प्रसन्नता हुई।

आपको फिरसे बीमार पड़नेका अधिकार किसने दिया? जिसने दिया है उसे वापस सौंप दें तो क्या काम नहीं चलेगा? या ऐसा है कि इस स्वतन्त्रताके युगमें मिले हुए अधिकारोंको छोड़ा नहीं जा सकता?

मैं तो जैसा आप चाहते हैं वैसा अपनी बुद्धिके अनुसार प्रयत्न करता ही रहता हूँ, इतना निश्चित समझें। आपके द्वारा उद्धृत इस अन्तिम कड़ीकी मैं अक्षरशः मानता हूँ "भले ही बाहरसे भिन्नता हो किन्तु अन्तरमें एकता होनी चाहिए।"

  1. साधन-सूत्रमें ऐसा ही है।