४३५. पत्र: अहमद मियाँको
२५ अप्रैल, १९२६
आपका पत्र मिला है। १-२ मेरी दृष्टिसे हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यका मेरा प्रयत्न निष्फल नहीं हुआ है और मैं मानता हूँ कि इस समय दोनों जातियोंका मन एक-दूसरेसे कितना ही विमुख क्यों न हो गया हो लेकिन उन्हें अन्ततः एक-दूसरेके निकट आना ही होगा।[१]
३. देशके उद्धारके लिए ऐक्यकी आवश्यकता है ही।
४. जो पैसा जिस कार्यके लिए इकट्ठा किया जाये उसका उपयोग उसी कार्यके लिए किया जा सकता है।
५. कलकत्ताकी दुःखद घटनाओंके कारणोंका मैं पता नहीं लगा सका हूँ। समाचार-पत्रोंपर मुझे बहुत कम विश्वास है। आर्य समाजके जलूस पहले भी निकलते थे, ऐसी मेरी मान्यता है।
६. मैं और कोई मार्ग अपनाता तो ज्यादा अच्छा फल निकलता, इस झमेलेमें पड़ना मैं खुदाके प्रति बेवफाई मानता हूँ।
७. मेरी जगह कौन लेगा इसकी चिन्ता ईश्वर करता है, यह मैं जानता हूँ; इसलिए मैं क्यों चिन्ता करूँ?
मोहनदास गांधीके वन्देमातरम्
गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९९०९) की माइक्रोफिल्मसे।
४३६. पत्र: जमनालाल बजाजको
आश्रम
२५ अप्रैल, १९२६
तुम्हारा पत्र मिला। गवर्नरका जवाब आया है कि अभी मेरे वहाँ जानेकी जरूरत नहीं है। वह जब जून महीनेमें [पहाड़से] नीचे उतरे तब जाऊँ तो ठीक होगा। इसलिए महाबलेश्वरके जंजालसे तो छुट्टी मिली।
लालाजीके साथ मैंने उनकी शिकायतके बारेमें कुछ बातचीत तो की ही थी, पर मुझसे तो उन्होंने इनकार ही किया। रोगकी जानकारी है, इसलिए जब आयेंगे तो इलाज तो कर ही लेंगे।
- ↑ साधन-सूत्रमें 'लड़ना ही होगा' है।