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विवाह-प्रथाको उठा दो?

अथवा मर्यादा है, जो मनुष्य संयमका पालन नहीं करता वह धर्मको क्या समझेगा? पशुके बनिस्बत मनुष्यमें विकार अधिक प्रबल होते हैं। दोनोंके विकारोंकी तुलना ही नहीं की जा सकती। जो मनुष्य विकारोंको वशमें नहीं रख सकता वह ईश्वरकी पहचान नहीं कर सकता। इस सिद्धान्तका समर्थन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि मैं यह बात स्वीकार करता हूँ कि जो लोग ईश्वरका अस्तित्व अथवा आत्मा और देहकी भिन्नता स्वीकार नहीं करते, उनके लिए विवाह-बन्धनकी आवश्यकता सिद्ध करना मुश्किल होगा। परन्तु जो आत्माका अस्तित्व स्वीकार करता है और उसका विकास करना चाहता है उसे यह समझानेकी आवश्यकता ही न होगी कि देहका दमन किये बिना आत्माकी पहचान और उसका विकास असम्भव है। देह या तो स्वेच्छाचारकी लीला-स्थली है या आत्माकी पहचान करानेवाली तीर्थ-भूमि। यदि वह आत्माकी पहचान करानेवाली तीर्थ-भूमि है तो उसमें स्वेच्छाचारका कोई स्थान ही नहीं। देहको प्रतिक्षण आत्माके नियंत्रणमें लानेका प्रयत्न करना चाहिए।

जमीन, जोरू और जर-तीनों झगड़ेके कारण वहीं होते हैं, जहाँ संयम धर्मका पालन नहीं होता। मनुष्य विवाहकी प्रथाको जिस हदतक मान देता है, स्त्रीका झगड़ेका कारण होना, उसी हदतक कम हो जाता है। यदि स्त्री और पुरुष भी पशुओंकी तरह जहाँ जैसा चाहे वैसा व्यवहार कर सकते तो मनुष्योंमें बड़ा झगड़ा होता और वे अवश्य ही एक-दूसरेका नाश करते। इसलिए मेरा तो यह दृढ़ मत है कि लेखकने जिस दुराचार और जिन दोषोंका उल्लेख किया है उनकी औषध विवाह-धर्मका उच्छेद नहीं है, बल्कि उसका सूक्ष्म निरीक्षण और पालन है।

किसी जगह रिश्तेदारोंमें विवाह-सम्बन्ध करनेकी स्वतन्त्रता होती है और किसी जगह नहीं होती। इस तरह यह सच है कि स्थान-भेदके अनुसार नीतिमें भी भेद है। किसी जगह एक पत्नीव्रतका पालन करना धर्म माना जाता है और किसी जगह एक समयमें अनेक पत्नियाँ रखनेपर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। यह बात वांछनीय है कि नीतिमें यह भेद न हो; परन्तु यह भिन्नता हमारी अपूर्णताकी सूचक है, नीतिकी अनावश्यकताकी सूचक कभी नहीं। हम ज्यों-ज्यों अधिक अनुभव प्राप्त करते जायेंगे त्यों-त्यों सब कौमोंकी और सभी धर्मोके लोगोंकी नीतिमें सामंजस्य होता जायेगा। नीतिकी सत्ता स्वीकार करनेवाला जगत तो आज भी एक पत्नीव्रतको आदरकी दृष्टिसे देखता है। किसी भी धर्ममें अनेक पत्नी रखना आवश्यक नहीं रखा गया है। उनमें सिर्फ अनेक पत्नी रखनेकी छूट दी गई है। देश और कालको देखकर किसी बातकी छूट दे दी जाये तो उससे आदर्श असत्य सिद्ध नहीं होता और न उसकी भिन्नता ही सिद्ध होती है। विधवा-विवाहके सम्बन्धमें मैं अपने विचार अनेक बार प्रकाशित कर चुका हूँ। मैं बाल-विधवाओंके पुनर्विवाहको इष्ट मानता हूँ, यही नहीं, मैं यह भी मानता हूँ कि उनका पुनर्विवाह करना उनके माता-पिताओंका कर्त्तव्य है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २५-४-१९२६