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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अग्नि ज्वालामुखीकी तरह भभक उठेगी और संसारको क्षण-मात्रमें भस्म कर देगी। थोड़ा-सा विचार करनेपर यह मालूम होगा कि मनुष्य इस संसारमें दूसरे अनेक प्राणियोंपर अधिकार प्राप्त किये हुए है तो वह केवल संयम, निस्स्वार्थता, आत्मत्याग, यज्ञ और बलिदानके कारण ही।

प्रमेह और उपदंश आदिके उपद्रव विवाहके नियमके कारण नहीं बल्कि उसका भंग करनेके कारण और मनुष्यके पशु न होनेपर भी, पशुका अनुकरण करनेके कारण ही होते हैं। मैं विवाहके नियमोंका पालन करनेवाले ऐसे एक भी मनुष्यको नहीं जानता, जिसे इन भयंकर रोगोंका शिकार होना पड़ा हो। जहाँ-जहाँ ये रोग हुए हैं वहाँ-वहाँ अधिकांशमें विवाह-नीतिका भंग करनेसे अथवा उस नीतिका भंग करनेवालोंके संसर्गसे हुए हैं। यह बात चिकित्सा- शास्त्रसे सिद्ध होती है। बाल-विवाह और बाल-हत्या जैसी निर्दयी प्रथाओंका कारण विवाह-नीति नहीं है; बल्कि वे ही विवाह-नीतिके भंगसे जन्मी हैं। विवाह-नीति तो यह कहती है कि जब किसी पुरुष अथवा स्त्रीकी आयु विवाहके योग्य हो जाये, जब उसे प्रजोत्पत्तिकी इच्छा हो और उसका स्वास्थ्य अच्छा हो तभी वह एक निश्चित मर्यादाका पालन करता हुआ अपने लिए योग्य साथी ढूँढ ले अथवा उसके माता-पिता ढूँढ़ दें। जो साथी ढूँढा जाये उसमें भी नीरोगता आदि गुण अवश्य हों। इस विवाह-नीतिका पालन करनेवाले मनुष्य, हम संसारमें चाहे कहीं भी जाएँ और देखें, सुखी ही दिखाई देते हैं। जो बात बाल-विवाहके सम्बन्धमें है वही वैधव्यके सम्बन्धमें भी है। विवाह-नीतिके भंगसे ही दुःखजनक वैधव्य उत्पन्न होता है। जहाँ विवाह शुद्ध होता है वहाँ वैधव्य अथवा विधुरता सहज और शोभास्पद होती है। जहाँ ज्ञानपूर्वक विवाह सम्बन्ध किया गया है वहाँ वह सम्बन्ध केवल दैहिक नहीं रहता, बल्कि आत्मिक हो जाता है और आत्मिक सम्बन्ध देह छूट जानेपर भी भुलाया नहीं जा सकता। जहाँ इस सम्बन्धका ज्ञान होता है, वहाँ पुनर्विवाह असम्भव है, अनुचित है और अधर्म है। जिस विवाह-सम्बन्धमें उपयुक्त नियमोंका पालन नहीं होता उसे विवाहका नाम नहीं दिया जाना चाहिए और जहाँ विवाह नहीं होता वहाँ वैधव्य अथवा विधुरता जैसी कोई चीज ही नहीं होती। यदि हम ऐसे आदर्श विवाह बहुत होते हुए नहीं देखते तो केवल इस कारणसे विवाह-प्रथाको नष्ट करनेका कोई कारण दिखाई नहीं देता। हाँ, वह अच्छे आधारपर प्रतिष्ठित एक सबल कारण अवश्य हो सकता है।

सत्यके नामसे असत्यका प्रचार करनेवालोंकी संख्या देखकर कोई सत्यका ही दोष निकाले और उसकी अपूर्णता सिद्ध करनेका प्रयत्न करे तो हम उसे अज्ञानी मानेंगे। उसी प्रकार विवाह-नीतिके भंगके दृष्टान्तोंसे विवाह-नीतिकी निन्दा करनेका प्रयत्न करना भी अज्ञान और अविचारका ही चिह्न है।

लेखक कहते हैं कि विवाहमें धर्म या नीति कुछ नहीं है, वह तो एक रूढ़ि अथवा रिवाज है और वह भी धर्म और नीतिके विरुद्ध है और इसलिए उठा देनेके योग्य है। मेरी अल्पमतिके अनुसार तो विवाह धर्मकी बाड़ है और यदि उसे उठा दिया जायेगा तो संसारमें धर्म-जैसी कोई चीज ही न रहेगी। धर्मकी जड़ ही संयम