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विवाह-प्रथाको उठा दो?

उपरोक्त चार परिणामोंके सिवा दूसरे दुष्परिणाम भी होंगे। यदि मेरी दलील ठीक है तो क्या प्रचलित नीतिमें कोई सुधार नहीं किया जाना चाहिए?

ब्रह्मचर्यको आप मानते हैं, यह ठीक ही है। परन्तु ब्रह्मचर्य राजी-खुशीका होना चाहिए, जबरदस्तीका नहीं। और हिन्दू लोग तो लाखों विधवाओंसे जबरदस्ती ब्रह्मचर्यका पालन कराते हैं। इन विधवाओंके दुःखोंको तो आप जानते ही हैं। आप यह भी जानते हैं कि इसी कारणसे बाल-हत्याएँ होती हैं तो आप पुनर्विवाहके लिए एक बड़ी हलचल करें तो क्या बुरा? उसकी आवश्यकता भी कुछ कम नहीं है। आप उसके प्रति जितना चाहिए उतना ध्यान क्यों नहीं दे रहे हैं?

मेरा खयाल है कि पत्र-लेखकने ऊपर जो प्रश्न पूछे हैं, वे इस विषयपर मुझसे कुछ लिखानेके लिए ही पूछे हैं, क्योंकि पत्रमें जिस पक्षका समर्थन किया गया है उसका लेखक स्वयं समर्थन करते हों तो इसकी मुझे जानकारी नहीं है। परन्तु मैं यह जानता हूँ कि उन्होंने जैसे प्रश्न पूछे हैं वैसे प्रश्न आजकल भारतवर्षमें भी हो रहे हैं। उसकी उत्पत्ति पश्चिममें हुई है और विवाहको पुरानी, जंगली और अनीतिकी वृद्धि करनेवाली प्रथा माननेवालोंकी संख्या वहाँ कुछ कम नहीं है। शायद वह संख्या बढ़ भी रही हो। विवाह एक जंगली प्रथा है, यह साबित करनेके लिए पश्चिममें जो दलीलें दी जाती हैं वे सब मैंने नहीं पढ़ी हैं। परन्तु ऊपर लेखकने जैसी दलीलें की हैं वे दलीलें वैसी ही हों तो मेरे जैसे पुराणपन्थीको (अथवा मेरा दावा माना जा सके तो सनातनीको) उनका खण्डन करनेमें कोई मुश्किल या परेशानी न होगी।

मनुष्यकी तुलना पशुसे करनेमें ही मूलत: भूल हुई है। मनुष्यके लिए जो नीति और आदर्श रखे गये हैं वे बहुतांशमें पशुनीतिसे भिन्न और उत्तम हैं और यही मनुष्यकी विशेषता है। इसलिए प्रकृतिके नियमोंका जो अर्थ पशु-योनिके लिए किया जा सकता है वह मनुष्य-योनिपर हमेशा लागू नहीं किया जा सकता। ईश्वरने मनुष्यको विवेकशक्ति दी है। पशु केवल पराधीन है। इसलिए पशुके लिए स्वतन्त्रता अथवा अपनी पसन्दगी जैसी कोई चीज नहीं है। मनुष्यकी अपनी पसन्दगी होती है। वह सार-असारका विचार कर सकता है और वह स्वतन्त्र होनेसे पाप-पुण्यका कर्त्ता-अकर्त्ता भी है और जहाँ उसकी अपनी पसन्दगी रखी गई है वहाँ उसके लिए पशुसे भी अधिक गिरनेका अवकाश रहता है। उसी प्रकार यदि वह अपने दिव्य स्वभावके अनुकूल चले तो वह उससे ऊँचा भी उठ सकता है। बेहद जंगली दिखनेवाली कौमोंमें भी थोड़े-बहुत अंशोंमें विवाहका अंकुश होता ही है। यदि यह कहा जाये कि यह अंकुश रखना ही जंगलीपन है, क्योंकि पशु तो किसी अंकुशको नहीं मानते तो उसका परिणाम यह होगा कि स्वेच्छाचारिता ही मनुष्यका नियम बन जायेगा। परन्तु यदि सब मनुष्य मात्र चौबीस घंटोंके लिए ही स्वेच्छाचारी बन जायें तो सारे जगतका नाश ही हो जाये। तब कोई किसीकी बात न मानेगा; स्त्री और पुरुषकी मर्यादा अधर्म समझी जायेगी, और मनुष्यका विकार तो अवश्य ही पशुके बनिस्बत बहुत प्रबल होता है। इस विकारका नियन्त्रण ढीला कर दें तो उसके वेगसे उत्पन्न