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४३४. विवाह-प्रथाको उठा दो?

एक पत्र लेखक, जिन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूँ, इस प्रकार लिखते हैं:

बार-बार मनमें यही सवाल होता है कि क्या प्रचलित नीति प्रकृति-सम्मत है? नीतिधर्मके बारेमें आपने जो-कुछ लिखा है उससे प्रचलित नीतिका समर्थन होता है। किन्तु क्या यह प्रचलित नीति कुदरती है? मेरा तो यह खयाल है कि वह कुदरती नहीं है। क्योंकि वर्तमान नीतिके कारण ही मनुष्य विषय-वासनामें पशुसे भी अधम बन गया है। आजकी नीतिको मर्यादाके कारण सन्तोषकारक विवाह शायद ही कहीं होता होगा; नहीं होता है, यह कहूँ तो भी कोई अत्युक्ति न होगी। जब विवाहका नियम न था उस समय स्त्री-पुरुषका समागम कुदरतके नियमोंके अनुसार होता था और वह समागम सुखकर होता था। आज नीतिके बंधनोंके कारण इस समागमने एक तरहकी कष्टकर बीमारी का रूप ले लिया है-- ऐसी बीमारीका, जिसमें सारा संसार फँसा हुआ है और वह फँसता जा रहा है।

सवाल यह है कि हम नीति कहें किसे? एक जिसे नीति मानता है, दूसरा उसे ही अनीति मानता है। एक धर्म कहता है कि एक ही पत्नी होनी चाहिए, दूसरा अनेक पत्नियोंकी इजाजत देता है। कोई चाचा-मामाकी सन्तानके साथ विवाह सम्बन्धको त्याज्य मानते हैं तो कोई उसके लिए इजाजत भी देते हैं। तो अब इसमें नीति किसे समझें? मैं तो यह कहता हूँ कि विवाहका सम्बन्ध सामाजिक व्यवस्थासे है, उसका धर्मके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। पुराने जमानेके महापुरुषोंने देश-कालानुसार नीतिकी व्यवस्थाकी थी।

अब इस नीतिके कारण जगतकी कितनी हानि हुई है, इसकी जाँच करें।

१. प्रमेह, उपवंश इत्यादि रोग उत्पन्न हुए। पशुओंमें ये रोग नहीं होते हैं क्योंकि उनमें प्राकृतिक समागम होता है।

२. बाल हत्याएँ करायीं। यह लिखनेमें मेरा हृदय काँप उठता है। इस नीतिके कारण ही तो एक कोमल-हृदय माता क्रूर बनकर गर्भमें या गर्भके बाहर आनेपर अपने बालकका नाश करती है।

३. बाल-विवाह, वृद्ध पतिके साथ छोटी उम्रकी लड़कियोंका विवाह इत्यादि पसन्द न करने योग्य सम्बन्धोंका होना। ऐसे समागमोंके कारण ही आज संसार और उसमें भी विशेषकर भारतवर्ष दुर्बल बना हुआ है।

४. जर, जोरू और जमीन इनके तीन प्रकारके झगड़ोंमें भी जोरूके लिए किये गये झगड़ोंको प्रथम स्थान प्राप्त है; ये भी वर्तमान नीतिके कारण ही होते हैं।