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खादीके प्रति द्वेष

  कारणोंसे मेरी शिक्षा इन दो चीजोंसे शुरू होती है। लेकिन यह तो आपको भायेगी नहीं। इसलिए जो दुःख आपने माना है उसका इलाज आपको दूसरे स्थानपर ढूँढ़ना होगा। खोज करते-करते जब आपका प्रयत्न निष्फल हो जाये तब आप मेरे पास आना। मेरे पास श्रद्धा और धीरजका अक्षय भण्डार है, इसलिए मैं निर्भय होकर आपकी राह देखूँगा।

मोहनदास गांधीके वन्देमातरम्

श्री रामू परमानन्द ठक्कर,
सामलदास कालेज, भावनगर

गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९९०८) की माइक्रोफिल्मसे।

४३३. खादीके प्रति द्वेष

इस स्वदेशाभिमानी नवयुवकको[१] मैं उसकी दृढ़ता और त्यागके लिए बधाई देता हूँ और उम्मीद रखता हूँ कि वह अपनी दृढ़ता कायम रखेगा; ज्यादा वेतनके लोभमें, भविष्यमें भी अपनी टेक और अपनी खादीकी वेश-भूषा नहीं छोड़ेगा। खादीका अभी भी इस तरह अपमान हो सकता है, इसमें अंग्रेजोंके दोषकी अपेक्षा हमारा दोष अधिक है। अंग्रेजी पेढ़ियोंको अपनी इच्छाके अनुसार पोशाक पहननेवाले असंख्य नवयुवक मिल जाते हैं, इसलिए उन लोगोंको इसकी कोई चिन्ता नहीं होती और वे अपनी इच्छानुसार व्यवहार कर सकते हैं। यदि सब लोग खादीके मूल्यको समझें और देशके लिए थोड़ा-बहुत त्याग करनेके लिए भी तैयार हो जायें तो खादीके प्रति जो द्वेष-भाव दिखाई पड़ता है वह आज ही बन्द हो जाये।

सनातनी क्या करें?

"सनातनी हिन्दू" उपनामसे एक विद्वान् और धर्मनिष्ठ हिन्दू लिखते हैं।[२]

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २५-४-१९२६
  1. नवयुवकने अपने पत्रमें, जो यहाँ नहीं दिया गया है, बताया था कि किस तरह उसने राष्ट्रीय हितके लिए अपनी शिक्षाकी बलि दी और हमेशा खादी पहननेका नियम अपनाया। बादमें वह एक अंग्रेजी पेढीमें शॉर्टहैण्ड टाइपिस्टकी जगहके लिए चुना गया लेकिन जब वह कामपर गया तो उसे खादीके पहरावेके कारण कामपर रखनेसे इनकार कर दिया गया। देखिए "खादीके पक्ष और विपक्ष में", २२-४-१९२६।
  2. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। पत्र लेखकने दक्षिणमें मन्दिर-प्रवेश करनेके बारेमें जो आन्दोलन चल रहा था, उसकी चर्चा करते हुए संस्कृतका यह लोक उद्धृत किया था:

    कृष्णालय-समीपस्थान् कृष्णदर्शन लालसान्।
    चाण्डालान् पतितान् व्रात्यान् स्पृष्टवा न स्नानमाचरेत्॥

    कृष्णदर्शनको लालसासे मन्दिरके पास खड़े हुए चांडालों, पतितों और धर्मभ्रष्टोंको छूकर नहानेका कोई कारण नहीं है।