४२९. पत्र: अमृतलाल बेचरदासको
२४ अप्रैल, १९२६
मैंने १९०२ में अपने जीवनका बीमा करवाया था। १९०३ अथवा १९०४ में दिया हुआ पैसा छोड़कर बीमा रद करा दिया था।[१] २. मेरी मान्यता है कि जिन्दगीका बीमा करवाना ईश्वरके प्रति किसी-न-किसी मात्रामें हमारी आस्थाकी कमीका सूचक है।
मोहनदास गांधी
केलापीठ बाजार
भड़ौच
गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९९०५) की माइक्रोफिल्मसे।
४३०. पत्र: डूँगरसी कचराको
आश्रम
२४ अप्रैल, १९२६
आपका पत्र मिला। १. मुझे लगता है कि माता-पिताको जो दुःख हो वह आपको सहन करना चाहिए, उन्हें विनयपूर्वक समझानेमें भी आपको अपना धर्म और टेक नहीं छोड़नी चाहिए। माँ-बापको मोहवश जो दुःख हो रहा है समय बीतनेपर वह शान्त हो जायेगा। लेकिन छोड़ी हुई टेक वापस नहीं आ सकती। माता-पिताकी शान्तिके लिए आप अपनी पवित्रतामें दिन-प्रतिदिन वृद्धि करें। और जहाँ-जहाँ हो सके वहाँ-वहाँ उनकी सेवा करें। ऐसा करनेसे वे जल्दी ही यह समझ जायेंगे कि आप जो-कुछ कर रहे हैं वह धर्म समझकर ही कर रहे हैं।
२. बड़ो दादाका कथन ठीक हो सकता है। मनुष्यको अपने जीवन कालमें ही मुक्ति नहीं मिल सकती, ऐसी कोई बात नहीं है। यदि ऐसा हो तो यह सिद्ध होगा कि आत्माकी शक्ति की सीमा है। ज्यादासे-ज्यादा यही कह सकते हैं कि इस कालमें इसी देहमें मोक्ष मिलना इतना अधिक कठिन है कि यह लगभग असम्भव है।
- ↑ देखिए आत्मकथा, भाग ४, अध्याय ५।