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४२५. पत्र: जफर-उल-मुल्कको

साबरमती आश्रम
२४ अप्रैल, १९२६

प्रिय भाई,

आपका सुलिखित पत्र मिला। जो प्रश्न आपने पूछा है, उसका उत्तर देना वास्तवमें बहुत कठिन है। लेकिन यह ऐसे सवालोंमें से है, जिनके उत्तर सम्बन्धित व्यक्तिको खुद ही ढूँढ़ने चाहिए। जहाँतक कांग्रेसका सम्बन्ध है, आपको जो ठीक लगे वैसा करनेकी पूरी छूट है। लेकिन जिन लोगोंने असहयोगको लगभग अपना धर्म बना लिया है, उनका पथ-प्रदर्शन तो सिर्फ उनकी अन्तरात्माकी आवाज ही कर सकती है। अगर आप यह पूछें कि खुद मैं क्या करूँगा तो मैं केवल यही कह सकता हूँ कि गवर्नर महोदय जिस संस्थाके पदेन संरक्षक हों और जिस संस्थाके अध्यक्ष और मन्त्री भी सरकारी अधिकारी लोग हों, उस संस्थामें मैं काम नहीं कर सकता।

हृदयसे आपका,

श्री जफर-उल-मुल्क
लखनऊ

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९५०३) की फोटो-नकलसे।

४२६. पत्र: अमूल्यचन्द्र सेनको

साबरमती आश्रम
२४ अप्रैल, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। शुभकामनाओंके लिए धन्यवाद।

आपने मेरी स्थितिका जैसा चित्र खींचा है, उससे तो मैं स्तब्ध-सा रह गया हूँ। आप कहते हैं, "स्पष्ट है, आपने कभी भी असत्यको त्यागकर सत्यको नहीं अपनाया। यह कथन सच भी है और झूठा भी है। मेरे सामने कभी ऐसा प्रसंग ही नहीं आया कि सत्य बोलनेके लिए या अमुक बात सत्य है——यह समझने और स्वीकार करनेके लिए मुझे कोई प्रयत्न करना पड़ा हो। अगर सत्यके व्यापकतम अर्थकी दृष्टिसे देखा जाये तो मुझे स्वीकार करना होगा कि मैं अब भी असत्यसे भरा हुआ हूँ और निरन्तर उससे मुक्त होनेका प्रयास कर रहा हूँ। इसलिए ऊपर मैंने जिस वाक्यका अंश उद्धृत किया है, उसके बादवाले हिस्सेसे मैं पूरी तरह सहमत हो सकता हूँ, क्योंकि मैं दिन-प्रतिदिन सत्यको अधिकाधिक स्पष्ट रूपमें देख रहा हूँ।