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४०३. पत्र: नाजुकलाल नन्दलाल चौकसीको

साबरमती आश्रम
बृहस्पतिवार, द्वितीय चैत्र सुदी १० [२२ अप्रैल, १९२६][१]

भाईश्री नाजुकलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। मैं ऐसा हूँ ही नहीं कि मोतीकी आशा छोड़ दूँ। लेकिन मोतीमें आलस्य है और उसके इस आलस्यको मैं जैसे-तैसे करके निकालना चाहता हूँ। यदि वह उसे मेरे अनुनय-विनयसे नहीं निकालती तो फिर तुम शिक्षक तो हो ही अर्थात् तुम्हारे हाथमें बेतकी छड़ी देनी पड़ेगी। और यदि बेतकी छड़ीसे काम नहीं चलता तो तुम्हारे ही जिलेमें बैलोंको हाँकनेकी आरवाली छड़ी मैंने देखी है। मैं तुम्हें उपहारके रूपमें यही छड़ी भेज दूँगा। लेकिन मोतीके आलस्यको तो दूर करना ही होगा। उसे अपना लेख तो सुधारना ही होगा। अभी उसने लक्ष्मीको जो पत्र लिखा था उसके अक्षर तो ऐसे थे मानो मक्खीकी टाँगें। बड़ी बहन छोटी-बहनको क्या यही पदार्थ पाठ पढ़ायेगी? यह बात कैसे चल सकती है? इस प्रकरणको मैं यहीं पूरा करता हूँ।

अब चूँकि मसूरी नहीं जा रहा हूँ इसलिए बेला बहनने अभी भ्रमण करना बन्द कर दिया है। इसके सिवा, आनन्दी बीमार पड़ी है, इस कारण भी बाहर जाना नहीं हो सकता। लक्ष्मीदास परसों ही आये हैं। इसलिए यदि बन सके तो तुम दोनों अभी आ जाओ अथवा मोतीके बिना चल सके तो उसे भेज दो और तुम बादमें आओ अथवा तुम्हें जब फुर्सत हो तब चले आओ। जैसा अनुकूल हो वैसा करना। तुम्हारी तबीयत सुधर गई है, यह खबर मेरे लिए तो बहुत अच्छी है। आज इतना ही। यह पत्र तुम दोनोंके लिए है।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १२१२७) की फोटो-नकलसे।

  1. वर्षका अनुमान मसूरी यात्राके रद होनेके उल्लेखसे लगाया गया है।