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खादीके पक्ष और विपक्षमें

नहीं छोड़ूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह वह चीज है, जो मुझे गरीबोंके साथ संयुक्त करके रखती है। मैं आपको यह जानकारी इसलिए भेज रहा हूँ कि इसे पढ़कर दूसरे लोग भी यह समझ रखें कि अगर वे यूरोपीय पेढ़ियोंमें नौकरी पाना चाहते हैं तो वह उन्हें अपमानजनक शर्तोंपर ही मिल सकती है।

मैं इस नौजवान शीघ्रलिपिकको उसके त्यागके लिए बधाई देता हूँ और यह आशा करता हूँ कि शीघ्रलिपिकके तौरपर नौकरी पानेकी कोशिशमें भले ही उसे बार-बार निराश होना पड़े, किन्तु ईश्वर उसका साहस बनाये रखेगा।

खादीके पक्षमें

लेकिन, सभी यूरोपीय पेढ़ियोंके मालिक एक ही साँचेमें ढले हुए नहीं हैं। पिछले वर्ष जब मैं कलकत्तामें था, मुझे कई यूरोपीय व्यापारियोंके सम्पर्कमें आनेका अवसर मिला। उनमें से कुछ प्रमुख लोगोंको अपने कर्मचारियोंको खादी पोशाक पहननेपर एतराज होना तो दूर, उलटे उन्होंने बताया कि खादी-आन्दोलनसे उन्हें सहानुभूति है और वे इस भावनाकी कद्र करते हैं कि भारतीय लोग, बल्कि भारतमें व्यापार-व्यवसाय करके, सम्पत्ति अर्जित करनेवाले विदेशी लोग भी करोड़ों मेहनतकश लोगों द्वारा काती और बुनी गई खादीका ही उपयोग करें। 'यंग इंडिया' के पाठकोंको एक भारतीय कर्मचारीका भेजा निम्नलिखित पत्र पढ़कर खुशी होगी[१]:

मैं इस यूरोपीय पेढ़ीको उसके उदार दृष्टिकोणके लिए बधाई देता हूँ, क्योंकि जब असहयोग आन्दोलन पूरे जोरपर था और जब बहुत-से यूरोपीयोंको खादीकी पोशाकमें हिंसात्मक उद्देश्य दिखाई देते थे, उस समय मनमें किसी प्रकारके पूर्वग्रहको स्थान न देना कुछ मायने रखता था ।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२-४-१९२६
  1. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने लिखा था कि उसने १९१८ में एक यूरोपीय पेढ़ीमें शीघ्रलिपिककी हैसियतसे नौकरी कर ली। असहयोग आन्दोलनके दौरान उसमें देशभक्तिकी भावना जगी और यद्यपि वह मन-ही-मन बहुत डर रहा था, फिर भी उसने खादीकी पोशाक पहनना शुरू कर दिया। लेकिन, उसने देखा कि उसका भय निराधार था। उसके वेतनमें वार्षिक वृद्धि भी होती गई और अवसर आनेपर उसे तरक्की भी दी गई