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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  बेच देनेका प्रयत्न कर रहा है। जनवरीसे १७ मार्चतक प्रतिष्ठानके कार्यकर्त्ताओंने १४ जिलोंके ४१ स्थानोंमें फेरी लगाकर २५,००० रुपयेकी खादी बेची। कार्यकर्त्ताओंने अपनी समस्त बंगालकी यात्राकी एक योजना तैयार की है। वे आशा करते हैं कि कुछ ही महीनोंमें वे यह यात्रा पूरी कर लेंगे। इसलिए फिलहाल तो वहाँ जरूरतसे ज्यादा उत्पादन हो ही नहीं सकता बल्कि जितना उत्पादन हो सकेगा, वह कम ही पड़ेगा। इस तरह वे यह कह सकेंगे कि यदि अधिक पूँजी लगाई जाये तो अधिक खादी तैयार की जा सकेगी और बेची भी जा सकेगी। वह सचमुच आदर्श स्थिति होगी जब न केवल खादी वहींकी-वहीं बिक जायेगी, बल्कि मददके लिए पैसा भी स्थानिक स्तरपर ही इकट्ठा किया जा सकेगा। ऐसी स्थिति आनी निश्चित है, क्योंकि खादी की बिक्रीसे मध्यम वर्गके बहुत-से लोगोंका खादीसे ठीक परिचय होगा और वे जब खादीमें दिलचस्पी लेने लगेंगे तो स्वभावतः वे बिना कठिनाई आवश्यक पूँजी भी सुलभ कर लेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२-४-१९२६

४०२. खादीके पक्ष और विपक्षमें

खादीके विपक्षमें

एक सज्जनने गुजरातीमें एक पत्र लिखा है। नीचे उसका स्वतन्त्र अनुवाद दे रहा हूँ:[१]

मैं एक शीघ्रलिपिक हूँ। एक विख्यात यूरोपीय पेढ़ीका विज्ञापन देखकर मैंने उसके कार्यालयमें शीघ्रलिपिकके पदके लिए अर्जी दी। जैसे ही मुझे प्रबन्धकके सामने ले जाया गया, उसने बड़े ध्यानसे मेरे पहनावेपर नजर डाली, और यह देखकर कि वह पूरी तरह खादी का बना हुआ था, उसने कहा, 'तुम हमारे किसी कामके नहीं हो। क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि खादीकी पोशाक पहननेवालोंको यूरोपीय पिढ़ियोंमें नौकरी पानेकी आशा नहीं करनी चाहिए?" और यह कहकर उसने मुझे चलता कर दिया। मैं तो सोचता ही रह गया कि जो-कुछ लिखाया जाये, उसे सही-सही लिखनेकी मेरी योग्यतासे मेरी पोशाकका क्या सम्बन्ध हो सकता है? मैं इस बातके लिए अपने-आपको बधाई देता हुआ घर लौटा कि मैंने आरामदेह नौकरीके लोभमें खादीकी पोशाकको न छोड़नेका साहस दिखाया। मुझे उम्मीद है कि ईश्वर मेरे इस साहसको कायम रखेगा और कठिनसे-कठिन परीक्षाका प्रसंग आ जानेपर भी मैं खादीको

  1. यहाँ यह अनुवाद यंग इंडियाके अंग्रेजी अनुवादसे दिया जा रहा है।