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मादक पदार्थ, शराब और शैतान

परिणामतक ही सीमित रखनेका" वचन दिया था। उसने इस बातपर बड़ा दुःख प्रकट किया है कि ये सभ्य राष्ट्र न केवल कच्ची और शोधी हुई अफीमके आवश्यकता से अधिक उत्पादनको रोकनेमें असमर्थ रहे हैं, बल्कि ये उन बड़ी-बड़ी औषध-निर्माण- शालाओंमें घातक औषधोंका उत्पादन भी, जिन्हें सरकारसे लाइसेंस लेने पड़ते हैं और जिनकी जाँच की जा सकती है और इसलिए अगर कोई सरकार चाहे तो जिनपर नियन्त्रण रखना सबसे आसान काम है, नहीं रोक पाये हैं।

जिन पाठकोंने कांग्रेसके अनुरोधपर श्री एन्ड्रयूज द्वारा असममें अफीमके व्यापार और प्रयोगके विषयमें तैयार की गई रिपोर्ट पढ़ी होगी, वे जानते हैं कि इस आदतसे वहाँ लोगोंको कितनी हानि हुई है। उन्हें यह भी मालूम है कि सरकार इस बढ़ती हुई बुराईको रोकनेमें किस प्रकार बिलकुल असमर्थ रही है और किस प्रकार उसने उन सुधारकोंके मार्गमें भी रोड़े अटकाये जिन्होंने इस बुराईको दूर करनेकी कोशिश की। इसलिए यह देखकर लोगोंके मनको बड़ा तोष मिला कि राष्ट्रीय सप्ताहके दौरान सार्वजनिक सभाओंमें बोलनेवाले लोगोंने शराब और मादक पदार्थोंके पूर्ण निषेधपर जोर दिया। यह सुधार तो कबका सम्पन्न हो जाना चाहिए था और अगर कौंसिलोंमें जाना किसी भी प्रकारसे श्रेयस्कर है तो निर्वाचकों के बीच अपने-अपने प्रचारके लिए पूर्ण मध्य-निषेधको एक मुख्य आधार बनाना चाहिए। हर सदस्यको यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि वह पूर्ण मद्य-निषेध आन्दोलनको न केवल अपना समर्थन देगा, बल्कि खुद ऐसा आन्दोलन शुरू करेगा और उसे चलायेगा। पूर्ण मद्य-निषेधका तो बस एक ही उपाय है कि इस अनैतिक साधनसे जितना राजस्व प्राप्त होता है, उसी अनुपातमें सैनिक व्ययमें कमी कर दी जाये। इसलिए पूर्ण मद्यनिषेधकी माँगके साथ ही साथ सैनिक व्ययमें कटौतीकी माँग भी करनी चाहिए, फिर इस विषयपर जनमत-संग्रह आदिकी योजनाके चक्करमें पड़कर समस्याके समाधानमें विलम्ब नहीं करना चाहिए। भारतमें इस विषयपर जनमत संग्रहका कोई कारण ही नहीं हो सकता, क्योंकि मद्यपान और नशाखोरीको तो यहाँ सभी बुरा मानते हैं। पश्चिमी दुनियाकी तरह भारतमें शराब पीनेका कोई फैशन नहीं है। इसलिए, भारतमें जनमत-संग्रहकी बात करना इस समस्याकी उपेक्षा करना है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२-४-१९२६