गायके दूधके बारेमें तो मुझे तुम्हारे लिए पत्र नहीं, पुस्तक लिखनी चाहिए।
गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९४८१) की फोटो-नकलसे।
३९४. पत्र: देवचन्द पारेखको
साबरमती आश्रम
मंगलवार, २० अप्रल, १९२६
यह रहा दीवान साहबका पत्र। अब तो जब वे आयेंगे तब ही देखा जायेगा। तुम खुद ही पोरबन्दर हो आना। साथके पत्रको तुमने पढ़ा है, ऐसा कहना और चूँकि तुम मिलोगे ही इसलिए पत्रकी पहुँचमें नहीं लिखता। तुम्हारा वहाँ जाना मेरी पहुँच जैसा ही है।
गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९४८२) की माइक्रोफिल्मसे।
३९५. पत्र: प्रफुल्लचन्द्र मित्रको
साबरमती आश्रम
२१ अप्रैल, १९२६
आपका पत्र मिला। वास्तवमें मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि मेरे किसी साथीने ढाकामें विदेशी मच्छरदानीके बजाय खादीकी मच्छरदानी लेनेसे इनकार कर दिया। मच्छरदानीको मैं पहनने-ओढ़नेके आम वस्त्रोंमें शामिल नहीं करता, इसलिए जहाँतक खुद मेरी बात है, जिस प्रकार मुझे विदेशी छातेके उपयोगपर कोई आपत्ति नहीं है, उसी प्रकार विदेशी मच्छरदानीके भी इस्तेमालपर कोई एतराज नहीं है। वैसे मैं कोशिश तो यही करूँगा कि इन दोनोंका भी त्याग कर दूँ और जेलमें बदलेमें स्वदेशी मच्छरदानी और छाता ही प्राप्त करूँ। पर विदेशी कपड़ेके अतिरिक्त किसी अन्य वस्तुका बहिष्कार मेरे लिए धर्मका विषय नहीं है। और विदेशी कपड़ेके बहिष्कारको मैं धर्म इसलिए मानता हूँ कि मेरे विचारसे विदेशी कपड़ा हमारी गुलामीकी सबसे बड़ी निशानी है। यह कहना बिलकुल गलत है कि मेरे साथी गरीब लोगोंको मुझसे मिलने नहीं देते, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं जितनी देर ढाकामें रहा, बराबर गरीब लोगोंसे घिरा रहता था।
१९२० और १९२१ के बहिष्कारोंमें मेरा आज भी दृढ़ विश्वास है। कांग्रेसने उनमें ढील दे दी है, क्योंकि ऐसा करनेका उसे पूरा अधिकार है। जिसने भी असह-