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पत्र: सतीशचन्द्र दासगुप्तको

प्रहार किया गया हो, उसकी प्रस्तावना तो मैं किसी हालतमें नहीं लिख सकता। मेरी सलाह यह है कि अगर आप विवादास्पद विषयोंको स्थान दिये बिना हनुमन्तरावके सम्बन्धमें कुछ पठनीय चीजें प्रस्तुत नहीं कर सकें तो इस विषयपर कोई चीज प्रकाशित हो न करें। बेहतर यही होगा कि कुछ भी प्रकाशित न किया जाये या फिर पत्र-पत्रिकाओंमें कुछ लिखकर सन्तोष कर लिया जाये। आपने जो प्रति मुझे भेजी है, उसे अगर आप वापस चाहते हों तो कृपया लिख भेजें। मैं उसे लौटा दूँगा।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत डी॰ वी॰ रामस्वामी
विशाखापट्टम

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४७८) की माइकोफिल्म से।

३९०. पत्र: सतीशचन्द्र दासगुप्तको

साबरमती आश्रम
२० अप्रैल, १९२६

प्रिय सतीश बाबू,

आपके दोनों पत्र मिले। उत्कलके सम्बन्धमें आपकी बात मैंने ध्यानमें रख ली है। अभी मैं निरंजन बाबू द्वारा भेजे कागज-पत्र देख रहा हूँ।

आपकी पटना-यात्राको मैं काफी सफल मानता हूँ। चन्दा इकट्ठा करनेकी दृष्टिसे देखें तो भी; आखिरमें ये छोटे-छोटे संग्रह ही हमारे लिए आधार-स्तम्भका काम करेंगे। इसलिए, सौ रुपये उगाह पाना अच्छी शुरुआत है।

मैंने आपसे इस बातका जिक्र तो किया ही नहीं कि आपने रेलगाड़ीमें धुननेकी जरूरत पड़ते ही तत्काल जो धुनकी बना ली थी और जिससे आपने अपनी तकलीके लिए रुई धुनी थी, वह मुझे मिल गई है। यह बहुत अच्छा साधन है। हाथ-कताईकी खूबी इसी बातमें है कि हम मामूलीसे-मामूली चीजोंका भी इस्तेमाल अपने औजार-उपकरणकी तरह कर सकें। यह चीज हमारे देशवासियोंकी प्रकृतिके अधिक उपयुक्त है। उनकी कला औजारों और उपकरणोंमें नहीं, बल्कि उनके दिमाग़ और हाथमें होती है।

हेमप्रभा देवी कैसी है? उनका स्वास्थ्य अच्छा तो है? क्या उन्हें कभी आश्रमकी भी याद आती है? मेरी मसूरी-यात्रा स्थगित हो गई है। जमनालालजीका मन इस विषयमें पूरी तरह आश्वस्त नहीं था कि मुझे जो वहाँ ले जा रहे हैं, वह ठीक कर रहे हैं या नहीं। खुद मुझे तो इसकी जरूरत कभी महसूस नहीं हुई। इसके विपरीत मुझे लगता था कि इस तरह मसूरी जा बैठना जीवनके प्रति मेरे दृष्टिकोणसे संगत नहीं है और चूँकि कोई भी निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सका कि क्या करना ठीक है, इसलिए इसका फैसला सिक्का उछालकर कर लिया गया। नतीजा मसूरी